________________
[ २२ ]
सहन कर लिया जाय उसप्रकार प्रयत्न करते हुये, पैरोंने निकाचित उदयरूप थकान ग्रहण की । जो स्वरूप है वह अन्यथा नहीं होता यही अद्भुत आश्चर्य हैं । अव्याबाध स्थिरता है ।"
अंत समय ।
स्थिति और भी गिरती गई। शरीरका वजन १३२ पौंडसे घटकर मात्र ४३ पौंड रह गया । शायद उनका अधिक जीवन कालको पसन्द नहीं था । देहत्यागके पहले दिन शामको आपने अपने छोटे भाई मनसुखराम आदिसे कहा - "तुम निश्चित रहना, यह आत्मा शाश्वत है । अवश्य विशेष उत्तम गतिको प्राप्त होगा, तुम शांति और समाधिरूपसे प्रवर्तना । जो रत्नमय ज्ञानवाणी इस देहके द्वारा कही जा सकती थी, वह कहनेका समय नहीं । तुम पुरुषार्थं करना ।" रात्रिको २॥ बजे वे फिर बोले – 'निश्चिन्त रहना, भाईका समाधिमरण है' । और अवसानके दिन प्रातः पौने नौ बजे कहा : 'मनसुख, दुखी न होना, मैं अपने आत्मस्वरूप में लीन होता हूँ ।' और अन्तमें उसदिन सं० १९५७ चैत्र वदी ५ ( गुज० ) मंगलवार को दोपहरके दो बजे राजकोट में उनका आत्मा इस नश्वर देहको छोड़कर चला गया । भारतभूमि एक अनुपम तत्त्वज्ञानी - सन्तको खो बैठी ।
उनके देहावसान के समाचार सुनकर मुमुक्षुओंके चित्त उदास हो गये । वसंत मुरझा गया । निस्संदेह श्रीमद्जी विश्वकी एक महान विभूति थे । उनका वीतरागमार्ग-प्रकाशक अनुपम वचनामृत आज भी जीवनको अमरत्व प्रदान करनेके लिए विद्यमान है । धर्मजिज्ञासु बन्धु उनके वचनोंका लाभ उठावें ।
श्री लघुराजस्वामी ( प्रभुश्री) ने उनके प्रति अपना हृदयोद्गार इन शब्दों में प्रगट किया है : " अपरमार्थ में परमार्थके दृढ़ आग्रहरूप अनेक सूक्ष्म भूलभुलैयांके प्रसंग दिखाकर इस दासके दोष दूर करने में इन आप्त पुरुषका परम सत्संग तथा उत्तम बोध प्रबल उपकारक बने हैं ।" " संजीवनी औषध समान मृतको जीवित करे ऐसे उनके प्रबल पुरुषार्थ जागृत करनेवाले वचनों का माहात्म्य विशेष विशेष भास्यमान होनेके साथ ठेठ मोक्ष में ले जाय ऐसी सम्यक् समझ (दर्शन) उस पुरुष और उसके बोधकी प्रतीतिसे प्राप्त होती है; वे इस दुषम कलिकालमें आश्चर्यकारी अवलंबन हैं ।" "परम माहात्म्यवंत सद्गुरु श्रीमद् राजचन्द्रदेव के वचनों में तल्लीनता, श्रद्धा जिसे प्राप्त हुई है, या होगी उसका महद् भाग्य है । वह भव्य जीव अल्पकालमें मोक्ष पाने योग्य है ।"" 'उनकी स्मृति में शास्त्रमाला की स्थापना ।
सं० १९५६ में सत्श्रुतके प्रचार हेतु बम्बई में श्रीमद्जीने परमश्रुतप्रभावकमण्डल की स्थापना की थी । उसीके तत्त्वावधान में उनकी स्मृतिस्वरूप श्रीरामचन्द्र जैन शाखमाला की स्थापना हुई । जिसकी ओरसे अब तक समयसार, प्रवचनसार, गोम्मटसार, स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा, परमात्मप्रकाश
१. 'श्रीमद् राजचन्द्र' (गुज० ) पत्र क्र० ९५१ ।
२. 'श्रीमद्गुरुप्रसाद' पृ० २, ३
३. श्रीमद्जीद्वारा निर्देशित सरश्रुतरूप ग्रन्थोंकी सूची के लिये देखिए 'श्रीमद राजचंद्र' - ग्रन्थ ( गुज० ) उपदेशनोंध क्र० १५ ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org