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________________ [ २१ ] परमनिवृत्तिरूप कामना । चितना । उनका अन्तरंग, गृहस्थावास - व्यापारादि कार्यसे छूटकर सर्वसंगपरित्याग कर निर्ग्रन्थदशाके लिए छटपटाने लगा । उनका यह अंतर - आशय उनकी 'हाथनोंध' परसे स्पष्ट प्रगट होता है: " हे जीव ! असारभूत लगनेवाले ऐसे इस व्यवसायसे अब निवृत्त हो, निवृत्त ! उस व्यवसायके करनेमें चाहे जितना बलवान प्रारब्धोदय दीखता हो तो भी उससे निवृत्त हो, निवृत्त ! जो कि श्रीसर्वज्ञने कहा है कि चौदहवें गुणस्थानवर्ती जीव भी प्रारब्ध भोगे विना मुक्त नहीं हो सकता, फिर भी तू उस उदयके आश्रयरूप होनेसे अपना दोष जानकर उसका अत्यन्त तीव्ररूप में विचारकर उससे निवृत्त हो, निवृत्त ! ( हा. नो. १।१०१ क्र० ४४ ) " हे जीव ! अब तू संग - निवृत्तिरूप कालकी प्रतिज्ञा कर, प्रतिज्ञा कर ! केवल संगनिवृत्तिरूप प्रतिज्ञाका विशेष अवकाश दिखाई न दे तो अंशसंगनिवृत्तिरूप इस व्यवसायका त्याग कर ! जिस ज्ञानदशामें त्यागात्याग कुछ संभवित नहीं उस ज्ञानदशाकी सिद्धि हैं जिसमें ऐसा तू, सर्वसंगत्याग दशा अल्पकाल भी भोगेगा तो सम्पूर्ण जगत प्रसंग में वर्तते हुये भी तुझे बाधा नहीं होगी, ऐसा होते हुए भी सर्वज्ञने निवृत्तिको ही प्रशस्त कहा है; कारण कि ऋषभादि सर्व परमपुरुषोंने अंतमें ऐसा ही किया 1" ( हा. नों. १ । १०२ क्र० ४५ ) " राग, द्वेष और अज्ञानका आत्यंतिक अभाव करके जो सहज शुद्ध आत्मस्वरूप में स्थित हुए वही स्वरूप हमारे स्मरण, ध्यान और प्राप्त करने योग्य स्थान है ।" ( हा. नों. २ । ३ क्र० १) " सर्व परभाव और विभावसे व्यावृत्त, निज स्वभाव के भान सहित अवधूतवत् विदेहीवत् जिनकल्पीवत् विचरते पुरुष भगवानके स्वरूपका ध्यान करते हैं ।" ( हा. नों. ३।३७ क्र० १४ ) " मैं एक हूँ, असंग हूँ, सर्व परभावसे मुक्त हूँ, असंख्य प्रदेशात्मक निजअवगाहनाप्रमाण हूँ । अजन्म, अजर, अमर, शाश्वत हूँ । स्वपर्यायपरिणामी समयात्मक हूँ । शुद्ध चैतन्यमात्र निर्विकल्प दृष्टा हूँ । ( हा. नों. ३ । २९ क्र० ११ ) "मैं परमशुद्ध, अखंड चिद्धातु हैं, अचिद्धातुके संयोगरसका यह आभास तो देखो ! आश्चर्यवत्, आश्चर्यरूप, घटना है । कुछ भी अन्य विकल्पका अवकाश नहीं, स्थिति भी ऐसी ही है ।" ( हा. नों. २ । ३७ क्र० १७ ) इसप्रकार अपनी आत्मदशाको संभालकर वे बढ़ते रहे । आपने सं० १९५६ में व्यवहार सम्बन्धी सर्व उपाधि से निवृत्ति लेकर सर्वसंगपरित्यागरूप दीक्षा धारण करनेकी अपनी माताजीसे आज्ञा भी ले ली थी । परन्तु उनका शारीरिक स्वास्थ्य दिन-पर-दिन बिगड़ता गया । उदय बलवान है | शरीरको रोगने आ घेरा । अनेक उपचार करनेपर भी स्वास्थ्य ठीक नहीं हुआ । इसी विवशतामें उनके हृदयकी गंभीरता बोल उठी : " अत्यन्त त्वरासे प्रवास पूरा करना था, वहां बीच में सेहराका मरुस्थल आ गया । सिर पर बहुत बोझ था उसे आत्मवीर्य से जिसप्रकार अल्पकालमें Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002941
Book TitlePanchastikaya
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1969
Total Pages294
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size18 MB
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