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________________ [२०] सब लोगोंको उपदेश-ग्रहणके लिए ही कहते हैं । जैन और वेदान्ती आदिके भेदका त्याग करो । आत्मा वैसा नहीं है।" ___फिर भी अनुभवपूर्वक उन्होंने निर्ग्रन्थशासनकी उत्कृष्टताको स्वीकार किया है । अहो सर्वोत्कृष्ट शांतरसमय सन्मार्ग, अहो ! उस सर्वोत्कृष्ट शांतरसप्रधान मार्गके मूल सर्वज्ञदेव, अहो ! उस सर्वोत्कृष्ट शांतरसकी सुप्रतीति करानेवाले परमकृपालु सद्गुरुदेव-इस विश्वमें सर्वकाल तुम जयवंत वर्तो, जयवंत वर्तो।' दिनोंदिन और क्षण-क्षण उनकी वैराग्यवृत्ति वर्धमान हो चली । चैतन्यपुज निखर उठा। वीतरागमार्गकी अविरल उपासना उनका ध्येय बन गई। वे बढ़ते गये और सहजभावसे कहते गये"जहां-तहां से रागद्वेषसे रहित होना ही मेरा धर्म है।" निर्मल सम्यग्दर्शनकी प्राप्तिमें उनके उद्गार इसप्रकार निकले हैं ओगणीससे ने सुडतालीसे, समकित शुद्ध प्रकाश्युरे, श्रुत अनुभव वधती दशा, निज स्वरूप अवमास्यु रे। धन्य रे दिवस आ अहो ! (हा. नों. ११६३ क्र. ३२ ) सोल्लास उपकार-प्रगटना । "हे सर्वोत्कृष्ट सुखके हेतुभूत सम्यग्दर्शन ! तुझे अत्यन्त भक्तिपूर्वक नमस्कार हो। इस अनादि अनन्त संसारमें अनन्त अनन्त जीव तेरे आश्रय विना अनन्त अनन्त दुःख अनुभवते हैं। तेरे परमानुग्रहसे स्वस्वरूपमें रुचि हुई। परमवीतराग स्वभावके प्रति परम निश्चय आया । कृतकृत्य होनेका मार्ग ग्रहण हुआ । हे जिन वीतराग ! तुम्हें अत्यन्त भक्तिसे नमस्कार करता हूँ। तुमने इस पामर पर अनंत अनंत उपकार किया है।। हे कुन्दकुन्दादि आचार्यो ! तुम्हारे वचन भी स्वरूपानुसंधान में इस पामरको परम उपकारभूत हुए हैं । इसके लिये मैं तुम्हें अतिशय भक्तिपूर्वक नमस्कार करता हूँ। हे श्री सोभाग ! तेरे सत्समागमके अनुग्रहसे आत्मदशाका स्मरण हुआ। अतः तुझे नमस्कार करता हूँ।" (हा. नों. २।४५ क्र० २०) १. 'भीमद्राजचन्द्र' ( गुज० ) पत्र क्र० ३५८ २. 'श्रीमदुराजचन्द्र' शिक्षापाठ ६५ ( तत्त्वावबोध-१४ ) तथा पत्र क्र. ५९६ ३. हाथनोंध ३३५२ क्रम २३ 'श्रीमदुराजचन्द्र' (गुज. ) ४. पत्र क्र. ३७ 'श्रीमदुराजचन्द्र' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002941
Book TitlePanchastikaya
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1969
Total Pages294
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size18 MB
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