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अत्यन्त जाग्रत आत्मा ही परमात्मा बनता है, परम वीतराग- दशाको प्राप्त होता है । इन्हीं अन्तरभावोंके साथ आत्मस्वरूपकी ओर लक्ष कराते हुए एक बार श्रीमद्जीने अमदावादमें मुनिश्री लल्लुजी (पू० लघुराजस्वामी ) तथा श्रीदेवकरणजीको कहा था कि 'हममें और वीतरागमें भेद गिनना नहीं' 'हममें और श्री महावीर भगवानमें कुछ भी अन्तर नहीं, केवल इस कुर्तेका फेर है ।" मत -- मतान्तरके आग्रहसे दूर ।
उनका कहना था कि मत-मतान्तरके आग्रहसे दूर रहने पर ही जीवन में रागद्वेषसे रहित हुआ जा सकता है । मतोंके आग्रहसे निजस्वभावरूप आत्मधर्मकी प्राप्ति नहीं हो सकती । किसी भी जाति या वेषके साथ भी धर्मका सम्बन्ध नहीं :
" जाति वेषनो भेद नहि, कह्यो साधे ते मुक्ति लहे, एमां भेद
- जो मोक्षका मार्ग कहा गया है वह हो तो किसी भी जाति या वेषसे मोक्ष होवे, इसमें कुछ भेद नहीं है । जो साधना करे वह मुक्तिपद पावे ।
मार्ग जो होय । न कोय ॥ " ( आत्मसिद्धि १०७ )
आपने लिखा है - "मूलतत्त्वमें कहीं भी भेद नहीं है । मात्र दृष्टिका भेद है ऐसा मानकर आशय समझकर पवित्र धर्ममें प्रवृत्ति करना ।" ( पुष्पमाला १४ पृ० ४ )
"तू चाहे जिस धर्मको मानता हो इसका मुझे पक्षपात नहीं, मात्र कहने का तात्पर्य यही कि जिस मार्ग से संसारमलका नाश हो उस भक्ति, उस धर्म और उस सदाचारका तू सेवन कर ।" ( पु० मा० १५ पृ० ४ )
"दुनिया मतभेद के बंधन से तत्त्व नहीं पा सकी ।" ( पत्र क्र० २७ )
उन्होंने प्रीतम, अखा, छोटम, कबीर, सुन्दरदास, सहजानन्द, मुक्तानन्द, नरसिंह महेता आदि सन्तोंकी वाणीको जहां-तहां आदर दिया है और उन्हें मार्गानुसारी जीव ( तत्त्वप्राप्ति के योग्य आत्मा ) कहा है । इसलिए एक जगह उन्होंने अत्यन्त मध्यस्थतापूर्वक आध्यात्मिक दृष्टि प्रगट की है कि 'मैं किसी गच्छ में नहीं, परन्तु आत्मामें हूँ ।'
एक पत्र में आपने दर्शाया है - " जब हम जैनशास्त्रों को पढ़नेके लिए कहें तब जैनी होने के लिए नहीं कहते; जब वेदान्तशास्त्र पढ़ने के लिये कहें तो वेदान्ती होनेके लिए नहीं कहते । इसीप्रकार "अन्य शास्त्रोंको बांचनेके लिए कहें तब अन्य होनेके लिए नहीं कहते । जो कहते हैं वह केवल तुम
१. देखिए इसीप्रकार के विचार
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पक्षपातो न मे वीरे न द्वेषः कपिलादिषु ।
युक्तिमद्वचनं यस्य तस्य कार्यः परिग्रहः ॥ ( हरिभद्रसूरि )
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