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________________ [१८] के भाई होते थे ) से कह दिया था कि उनके आनेकी किसीको खबर न हो। उस समय वे नगरमें केवल भोजन लेने जितने समयके लिए ही रुकते, शेष समय ईडरके पहाड़ और जंगलोंमें बिताते। मुनिश्री लल्लुजी, श्रीमोहनलालजी तथा श्री नरसीरखको उनके वहां पहुंचनेके समाचार मिल गये । वे शीघ्रतासे ईडर पहुँचे । श्रीमद्जीको उनके आगमनका समाचार मिला। उन्होंने कहलवा दिया कि मुनिश्री बाहरसे बाहर जंगल में पहुंचे-यहां न आवें। साधुगण जंगलमें चले गये। बादमें श्रीमद्जी भी वहां पहुंचे। उन्होंने मुनिश्री लल्लुजीसे एकांतमें अचानक ईडर आनेका कारण पूछा। मुनिश्रीने उत्तर में कहा कि 'हम लोग अमदावाद या खंभात जाने वाले थे, यहां निवृत्ति क्षेत्रमें आपके समागममें विशेष लाभकी इच्छासे इस ओर चले आये। मुनि देवकरणजी भी पीछे आते हैं।' इस पर श्रीमद्जीने कहा-'आप लोग कल यहाँसे विहार कर जावें, देवकरणजीको भी हम समाचार भिजवा देते हैं वे भी अन्यत्र विहार कर जावेंगे। हम यहां गुप्तरूपसे रहते हैं-किसीके परिचयमें आनेकी इच्छा नहीं है ।' ___ श्री लल्लुजी मुनिने नम्र-निवेदन किया-'आपकी आज्ञानुसार हम चले जावेंगे परन्तु मोहनलालजी और नरसीरख मुनियोंको आपके दर्शन नहीं हुये हैं, आप आज्ञा करें तो एक दिन रुककर चले जावें ।' श्रीमद्जीने इसकी स्वीकृति दी। दूसरे दिन मुनियोंने देखा कि जंगलमें आम्रवृक्षके नीचे श्रीमद्जी प्राकृतभाषाकी *गाथाओंका तन्मय होकर उच्चारण कर रहे हैं । उनके पहुँचनेपर भी आधा घण्टे तक वे गाथायें बोलते ही रहे और ध्यानस्थ हो गए। यह वातावरण देखकर मुनिगण आत्मविभोर हो उठे। थोड़ी देर बाद श्रीमद्जी ध्यानसे उठे और विचारना' इतना कहकर चलते बने। मुनियोंने विचारा कि लघुशंकादि-निवृत्तिके लिए जाते होंगे परन्तु वे तो निस्पृहरूपसे चले ही गये । थोड़ी देर इधर-उधर ढूढ़कर मुनिगण उपाश्रयमें आ गये । उसी दिन शामको मुनि देवकरणजी भी वहां पहुँच गये। सभीको श्रीमद्जीने पहाड़के ऊपर स्थित दिगम्बर, श्वेताम्बर मन्दिरोंके दर्शन करनेकी आज्ञा दी। वीतराग-जिनप्रतिमाके दर्शनोंसे मुनियोंको परम उल्लास जाग्रत हआ। इसके पश्चात तीन दिन और भी श्रीमदजीके सत्समागमका लाभ उन्होंने उठाया। जिसमें श्रीमदजीने उन्हें 'द्रव्यसंग्रह' और 'आत्मानुशासन'-ग्रन्थ पूरे पढ़कर स्वाध्यायके रूप में सुनाये एवं अन्य भी कल्याणकारी बोध दिया। १. मा मुसह मा रज्जह मा दुस्सह इतृणि? अस्थेसु । पिरमिच्छह जइ चित्तं विचित्तझाणप्पसिद्धीए ॥४॥ .. किंचि वि चितंतो णिरोहवित्ती हवे जदा साह । लफ़्णय एयत्तं तदाहु तं णिच्चयं उमाणं ॥ ५५ ॥ ३. मा चिट्ठह मा जंपह मा चितह कि वि जेण होइ थिरो । अप्पा अप्पम्पि रयो इणमेव परं हवे उझाणं ॥५६॥ (द्रव्यसंग्रह ) -भीमजीने यह 'बृहदद्रव्यसंग्रह'-ग्रन्थ ईडरके दि. न शास्त्र भण्डारमेंसे स्वयं निकलवाया था। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002941
Book TitlePanchastikaya
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1969
Total Pages294
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size18 MB
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