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वर्षमें लिखी थी। यह एक, निस्संदेह धर्ममार्गकी प्राप्तिमें प्रकाशरूप अद्भुत रचना है । अंग्रेजीमें भी इसके गद्य-पद्यात्मक अनुवाद प्रगट हो चुके हैं।
गद्य-लेखनमें श्रीमद्जीने 'पुष्पमाला' 'भावनाबोध' और 'मोक्षमाला'की रचना की। यह सभी सामग्री पठनीय-विचारणीय है । 'मोक्षमाला' उनकी अत्यन्त प्रसिद्ध रचना है, जिसे उन्होंने केवल १६ वर्ष ५ मासकी आयुमें मात्र ३ दिनमें लिखी थी। इसमें १०८ पाठ हैं । कथनका प्रकार विशाल और तत्त्वपूर्ण है।
उनकी अर्थ करनेकी शक्ति भी बड़ी गहन थी। भगवत्कुन्दकुन्दाचार्य के 'पंचास्तिकाय'ग्रन्थकी मूल गाथाओंका उन्होंने अविकल गुजराती अनुवाद किया है । सहिष्णुता ।
विरोधमें भी सहनशील होना महापुरुषोंका स्वाभाविक गुण है। यह बात यहां घटित होती है। जैन समाजके कुछ लोगोंने उनका प्रबल बिरोध किया, निन्दा की, फिर भी वे अटल शांत और मौन रहे। उन्होंने एक बार कहा था : 'दुनिया तो सदा ऐसी ही है। ज्ञानियोंको, जीवित हों तब कोई पहचानता नहीं, वह यहाँ तक कि ज्ञानीके सिर पर लाठियोंकी मार पड़े वह भी कम; और ज्ञानीके मरनेके बाद उसके नामके पत्थरको भी पूजे !' एकान्तचर्या ।
मोहमयी ( बम्बई ) नगरीमें व्यापारिक काम करते हुये भी श्रीमद्जी ज्ञानाराधना तो करते ही रहते थे। यह उनका प्रमुख और अनिवार्य कार्य था । उद्योग--रत जीवनमें शांत और स्वस्थ चित्तसे चुपचाप आत्मसाधना करना उनके लिये सहज हो चला था; फिर भी बीच-बीच में विशेष अवकाश लेकर वे एकान्त स्थान, जंगल या पर्वतोंमें पहुँच जाते थे। वे किसी भी स्थानपर बहुत गुप्तरूपसे जाते थे। वे नहीं चाहते थे कि किसीके परिचयमें आया जाय, फिर भी उनकी सुगन्धी छिप नहीं पाती थी। अनेक जिज्ञासु-भ्रमर उनका उपदेश, धर्मवचन सुननेकी इच्छासे पीछे-पीछे कहीं भी पहुँच ही जाते थे और सत्समागमका लाभ प्राप्त कर लेते थे । गुजरातके चरोतर, ईडर आदि प्रदेशमें तथा सौराष्ट्र क्षेत्रके अनेक शान्तस्थानोंमें उनका गमन हुआ । आपके समागमका विशेष लाभ जिन्हें मिला उनमें मुनिश्री लल्लुजी ( श्रीमद्लघुराजस्वामी ), मुनिश्री देवकरणजी तथा सायलाके श्री सौभागभाई, अम्बालालभाई ( खंभात ), जूठाभाई ( अमदावाद ) एवं डूगरभाई मुख्य थे ।
एक बार श्रीमद्जी सं० १९५५ में जब कुछ दिन ईडरमें रहे तब उन्होंने डॉ० प्राणजीवनदास महेता ( जो उस समय ईडर स्टेटके चीफ मेडिकल ऑफीसर थे और सम्बन्धकी दृष्टिसे उनके श्वसुर
१. 'आत्मसिद्धि' के अंग्रेजी अनुवादमें Atmasiddhi, Self Realization, और Self Fulfilment
प्रगट हुए हैं । संस्कृत-छाया भी छपी है। २. देखिये-'श्रीमद्राजचन्द्र' गुज. पत्रांक ७६६ । उनकी सभी प्रमुख-सामग्रीका संकलन श्रीमदुराजचन्द्र'-ग्रन्थ
में किया गय ।
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