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________________ पश्चास्तिकायः । १८३ . .... . ... .. . . उक्तजीवप्रपञ्चोपसंहारोऽयम् : एदे जीवणिकाया देहप्पविचारमस्सिदा भणिदा । देहविहूणा सिद्धा भव्वा संसारिणो अभब्वा य ॥१२०॥ एते जीवनिकाया देहप्रवीचारमाश्रिताः भणिताः । देहविहीनाः सिद्धाः भव्या संसारिणोऽभव्याश्च ॥१२०॥ एते युक्तप्रकाराः सर्वे संसारिणो देहप्रवीचारा अदेहप्रवीचारा भगवंतः सिद्धाः ? शुद्धा जीवाः । तत्र देहप्रवीचारत्वादेकप्रकारत्वेऽपि संसारिणो द्विप्रकाराः । भव्या अभव्याश्च । ते शुद्धस्वरूपोपलम्भशक्तिसद्भावासद्भावाभ्यां पाच्यापाच्यमुद्वदभिधीयंत इति ॥ १२० ॥ सुखादिगुणस्य मोक्षलाभ इति सूत्राभिप्रायः ॥ ११९ ॥ अथ पूर्वोक्तजीवप्रपंचस्य संसारिमुक्तभेदेनोपसंहारव्याख्यानं करोति;- एते जीवनिकाया निश्चयेन शुद्धात्मस्वरूपाश्रिता अपि व्यवहारेण कर्मजनितदेहप्रवीचाराश्रिता भणिताः देहे प्रवीचारो वर्तना देहप्रवीचारः निश्चयेन केवलज्ञानदेहस्वरूपा अपि कर्मजनितदेहविहीना भवन्ति । ते के ? शुद्धात्मोपलब्धियुक्ताः सिद्धाः, संसारिणस्तु भव्या अभव्याश्चेति । तथाहि केवलज्ञानादिगुणव्यक्तिरूपा या शुद्धिस्तस्याः शक्तिर्भव्यत्वं भण्यते तद्विपरीतमभव्यत्वं । किंवत् ? पाच्यापाच्यमुद्रवत् सुवर्णेतरपाषाणवद्वा शुद्धिशक्तिर्यासौ सम्यक्त्वग्रहणकाले व्यक्तिमासादयति अशुद्धशक्तर्यासौ व्यक्तिः सा चाशुद्धिरूपेण पूर्वमेव तिष्ठति तेन कारणेनानादिरित्यभिप्रायः ॥ १२० ॥ एवं गाथाचतुष्टयपर्यंत आगे फिर भी इनका विशेष दिखाते हैं;--[ एते ] पूर्वोक्त [ जीवनिकायाः ] चतुर्गतिसंबंधी जीव [ देहप्रवीचारं ] देहके पलटनभावको [आश्रिताः ] प्राप्त हुए हैं ऐसा वीतराग भगवान्ने [ भणिताः ] कहा है । और जो [ देहविहीनाः } देहरहित हैं वे [ सिद्धाः ] सिद्ध जीव कहलाते हैं। तथा [ मंसारिणः । संसारी जीव हैं वे [ भव्याः ] मोक्ष अवस्था होने योग्य [ च ] और [ अभव्याः ] मुक्तभावकी प्राप्तिके अयोग्य हैं। भावार्थ-लोकमें जीव दो प्रकारके हैं। एक देहधारी और एक देहरहित । देहधारी तो संसारी हैं, देहरहित सिद्धपर्यायके अनुभवी हैं । संसारी जीवों में फिर दो भेद हैं। एक भव्य और दूसरे अभव्य । जो जीव शुद्धस्वरूपको प्राप्त होते हैं उनको भव्य कहते हैं, और जिनके शुद्धस्वभावके प्राप्त होनेकी शक्ति ही नहीं उनको अभव्य कहते हैं। जैसे एक मूंगका दाना तो ऐसा होता है कि वह सिजानेसे सीज जाता है अर्थात् पक जाता है और कोई कोई मूंग ऐसा होता है कि उसके नीचे कितनी ही लकड़ियां जलाओ वह सोजता ही नहीं, उसको कोरडू कहते है ॥ १२० ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002941
Book TitlePanchastikaya
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1969
Total Pages294
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size18 MB
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