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________________ १६० श्रीमद्राजचन्द्रजैनशाखमालायाम् । कालो जीवपुद्गलपरिणामेन निधीयते, निश्चयकालस्तु तत्परिणामान्यथानुपपत्त्येति । तत्र क्षणभङ्गी व्यवहारकालः, सूक्ष्मपर्यायस्य तानन्मात्रत्वात् । नित्यो निश्चयकालः स्वगुणपर्यायाधारद्रव्यत्वेन सर्वदैवाऽविनश्वरत्वादिति ॥१०॥ नित्यक्षणिकत्वेन कालविभागख्यापनमेतत् - कालो चि य ववदेसो सम्भावपरूवगो हवदि णिचो । उप्पण्णपद्धंसी अवरों दीहतरट्ठाई ॥१०१॥ कपुद्गलपरिणामस्तु शीतकाले पाठकस्याग्निपद कुम्भकारचक्रभ्रमणविषयेऽधस्तनशिलावहिरङ्गसहकारिकारणभूतेन कालाणुरूपद्रव्यकालेनोत्पन्नत्वाद्व्यकालसंमूतः दोण्हं एससहाओ द्वयो. निश्चयव्यवहारकालयोरेषः पूर्वोक्तः स्वभावः । स किंरूपः व्यवहारकालः । पुद्गलपरिणामेन व्यज्यमानत्वात्परिणामजन्यः । निश्चयकालस्तु परिणामजनकः कालो खणभंगुरो-समयरूपो व्यवहारकालः क्षणभंगुरः णियदो स्वकीयगुणपर्यायाधारत्वेन सर्वदेवाविनश्वरत्वाद्रव्यकालो नित्य इति । अत्र यद्यपि काललब्धिवशेन भेदाभेदरत्नत्रयलझणं मोक्षमार्ग प्राप्य जीवो रागादिरहितनित्यानंदैकस्वभावमुपादेयभूतं पारमार्थिकसुखं साधयति तथा जीवस्तस्योपादानकारणं न च काल इत्यभिप्रायः । तथा चोक्तं । आत्मोपादानसिद्धमित्यादिरिति ।। १०० ॥ अथ नित्यक्षणिकत्वेन पुनरपि कालभेदं दर्शयति;-कालोति य ववदेसो काल इति व्यपदेशः संज्ञा । स च द्रव्यकालसे उत्पन्न है । [ द्वयोः ] निश्चय और व्यवहार कालका [ एषः ] यह [ स्वभावः ] स्वभाव है । [ कालः ] व्यवहारकाल । क्षणभंगुरः ] समय समय विनाशीक है और [ नियतः । निश्चयकाल अविनाशी है । भावार्थजो क्रमसे अतिसूक्ष्म हुआ प्रवर्तित है वह व्यवहारकाल है, और उस व्यवहारकालका जो आधार है वह निश्चयकाल कहलाता है । यद्यपि व्यवहारकाल निश्चयकालका पर्याय है, तथापि जीवपुद्गलके परिणामोंसे वह जाना जाता है । इसलिये जीव पुदलोंके नवजीर्णतारूप परिणामोंसे उत्पन्न हुआ कहा जाता है । और जीव-पुद्गलोंका जो परिणमन है वह बाझमें द्रव्यकालके होते हुये समय-पर्याय में उत्पन्न है । इसलिये यह बात सिद्ध हुई कि समयादिरूप जो व्यवहारकाल है वह तो जीवपुदलोंके परिणामोंसे प्रगट किया जाता है और निश्चयकाल समयादि व्यवहारकालमें अविनाभाव निमित्त होनेसे अस्तित्वको धारण करता है, क्योंकि पर्यायसे पर्यायीका अस्तित्व ज्ञात होता है । इनमेंसे व्यवहारकाल क्षणविनश्वर है, क्योंकि पर्यायस्वरूपसे सूक्ष्मपर्याय उतने मात्र ही है जितने कि समयावलिकादि हैं । और निश्चयकाल नित्य है, क्योंकि वह अपने गुण-पर्यायस्वरूप द्रव्यसे सदा अविनाशी है ।। १०० ।। आगे कालद्रव्यका स्वरूप नित्यानित्यका भेद करके दिखाया जाता है निश्चीयते, २ समयादिरूपस्य.३ नित्यत्वेन णिकरवेन नित्यो निश्चयकालःक्षणिको व्यवहारकालः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002941
Book TitlePanchastikaya
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1969
Total Pages294
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size18 MB
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