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श्रीमद्रराजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् ।
ये खलु इन्द्रियग्राह्या विषया जीवैर्भवन्ति ते मूर्त्ताः । शेषं भवत्यमूर्त्त चित्तमुभयं समाददाति ॥ ९९ ॥
इह हि जीवे : ' स्पर्शनरसनघ्राणचक्षुर्भिरिन्द्रियैस्तं द्विषयभूताः स्पर्शरसगंधवर्णस्वभावा अर्था गृह्यते । भोत्रेन्द्रियेण तु तं एव तद्विषयहेतुभूतशब्दाकारपरिणता गृह्यते । कदाचित्स्थूलस्कंधत्वमापन्नाः कदाचित्सूक्ष्मत्वमापन्नाः कदाचित्परमाणुत्वमापन्नाः इन्द्रियग्रहणयोग्यतासद्भावाद् गृह्यमाणा अगृह्यमाणा वा मूर्ता इत्युच्यते शेषमितरत् समस्तमध्यर्थसंजातं स्पर्शरसगंधवर्णाभाव स्वभावमिन्द्रिय ग्रहणयोग्यताया अभावादमूर्तमित्युयति - जे खलु इंदियगेज्झा विसया ये खलु इन्द्रियैः करणभूतैर्माझा विषयाः कर्मतापन्नाः । कैः ? कर्तृभूतैः । जीवेहिं विषयसुखानंदरतैर्नीरागनिर्विकल्पनि जानंदै कलक्षणसुखामृतरसास्वादच्युतैर्बहिर्मुखजीवै: होंति ते मुत्ता भवन्ति ते मूर्ता विषयातीतस्वाभाविक सुखस्वभावात्मतत्त्वविपरीतविषयास्ते च सूक्ष्मत्वेन केचन यद्यपीन्द्रियविषयाः वर्तमानकाले न भवन्ति तथापि कालांतरे भविष्यंतीतीन्द्रियग्रहण योग्यतासद्भावादिन्द्रियग्रहणयोग्या भण्यंते सेसं हवदि अमुतं अमूर्तातीन्द्रियज्ञानसुखादिगुणाधारं यदात्मद्रव्यं तत्प्रभृति पंचद्रव्यरूपं पुद्गलादन्यत् यच्छेषं तद्भवत्यमूर्त चित्तं उभयं समादियादि चित्तमुभयं समाददाति । चित्तं हि मतिश्रुतज्ञाजीवोंसे [ खलु ] निश्चयसे [ इन्द्रियग्राह्याः ] इन्द्रियों के द्वारा ग्रहण करने योग्य [ विषया: 1 पुद्गलजनित पदार्थ हैं [ ते ] वे [ मूर्त्ताः ] मूर्तीक [ भवन्ति ] होते हैं [ शेषं ] पुद्गलजनित पदार्थोंसे जो भिन्न है सो [ अमूर्तं ] अमूर्त्तीक [ भवति ] होता है । अर्थात् — इस लोकमें जो स्पर्श-रस-गंध वर्णवंत पदार्थ स्पर्शन जीभ नासिका नेत्र इन चारों इन्द्रियोंसे ग्रहण किये जांय और जो कर्णेन्द्रिय द्वारा शब्दाकार परिणत पदार्थों ग्रहण किये जांय और जो पुद्गल किसी कालमें स्थूल स्कंधभाव परिणत हैं और जो पुद्गलस्कंध किसी का सूक्ष्मभाव परिणत हैं और किसही काल जो पुद्गल, परमाणुरूप परिणत हैं वे सबही मूर्तीक कहलाते हैं। कोई एक सूक्ष्मभाव परिणतिरूप पुद्गलस्कंध अथवा परमाणु यद्यपि इन्द्रियोंके द्वारा ग्रहण करनेमें नहीं आते तथापि इन पुलोंमें ऐसी शक्ति है कि यदि वे स्थूलताको धारण करें तो इन्द्रियग्रहण करने योग्य होते हैं । अतएव कैसी भी सूक्ष्मताको धारण करें, सब इन्द्रियप्राय ही कहे जाते हैं। और जीव धर्म अधर्म आकाश काल ये पांच पदार्थ हैं वे स्पर्श रस गंध वर्ण गुणसे रहित हैं, क्योंकि इन्द्रियोंके द्वारा प्रहण करनेमें नहीं आते । इसीलिये इनको अमूर्त्तीक कहते हैं । [ चित्तं ] मन इन्द्रिय [ उभयं ] मूर्तीक अमूतक दोनों प्रकारके पदार्थोंको [ समाददाति ] ग्रहण करता है । अर्थात् मन अपने विचारसे निश्चित पदार्थको जानता है । मन जब पदार्थोंको ग्रहण करता है तब पदार्थोंमें १ कर्तृभूतैः २ करणभूतैः ३ अर्थाः ४ श्रोत्रेन्द्रियविषयभूत शब्दाकारपरिणताः ५ विषयाः अर्थाः ।
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