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________________ पञ्चास्तिकायः। १५७ धर्मः, निष्क्रियोऽधर्मः, निष्क्रियः कालः । जीवानां सक्रियत्वस्य बहिरङ्गसाधनं कर्मनोकमोपचयरूपाः पुद्गला इति । ते' पुद्गलकरणाः। तदभावान्निःक्रियत्वं सिद्धानां । पुद्गलानां सक्रियत्वस्य बहिरङ्गसाधनं परिणामनिर्वर्तकः काल इति ते कालकरणाः । नच कर्मादीनामिव कालरयाभावः । ततो न सिद्धानामिव निष्क्रियत्वं पुद्गलानामिति ॥९८॥ मूर्तामूर्तलक्षणाख्यानमेतत् ; जे खलु इंदियगेज्झा विसया जीवेहिं होति ते मुत्ता। सेसं हवदि अमुत्त चित्रं उभयं समादियदि ॥९९॥ व्यापाररूपक्रियापरिणतैनिःक्रियनिविकारशुद्धात्मानुभूतिभावनाच्युतै वैये समुपार्जिताः कर्मनोकर्मपुद्गलास्त एव करणं कारणं निमित्तं येषां ते जीवाः पुद्गलकरणा भण्यंते खंदा स्कंधाः स्कंधशब्देनात्र स्कंधाणुभेदभिन्नाद्विधा पुद्गला गृह्यते । ते च कथंभूताः ? सक्रियाः । कै कृत्वा ? कालकरणेहिं परिणामनिर्वर्तककालाणुद्रव्यैः खलु स्फुटं । अत्र यथा शुद्धात्मानुभूतिबलेन कर्मक्षये जाते कर्मनोकर्मपुद्गलानामभावात्सिद्धानां निःक्रियत्वं भवति न तथा पुद्गलानां । कस्मात् १ कालस्य सर्वदैव वर्णवत्या मूर्त्या रहितत्वादमूर्तः विद्यमानत्वादिति भावार्थः ॥ ९८ ॥ एवं सक्रियनिःक्रियत्वमुख्यत्वेन गाथा गता । अथ पुनरपि प्रकारांतरेण मूर्तामूर्तस्वरूपं कयऔर जो [ स्कंधाः ] पुद्गलस्कंध हैं वे [ खलु ] निश्चयसे [ कालकरणा: ] कालद्रव्यके निमित्तसे क्रियाबंत होकर नाना प्रकारकी अवस्थाको धारण करते हैं। भावार्थएक प्रदेशसे प्रदेशांतरमें गमन करनेका नाम क्रिया है । षद्रव्यों से जीव और पुद्गल ये दोनों द्रव्य प्रदेशसे प्रदेशांतरमें गमन करते हैं और कंपरूप अवस्थाको धारण करते हैं इसलिये क्रियावंत कहे जाते हैं। और शेष चार द्रव्य निष्क्रिय, निष्कम्प हैं। जीव द्रव्यकी क्रिया निमित्त बहिरंगमें कर्म-नोकर्मरूप पुद्गल हैं। इनकी ही संगतिसे जीव अनेक विकाररूप होकर परिणमता है। और जब काल पाकर पुद्गलमयी कर्म नोकर्मका अभाव होता है तब साहजिक निष्क्रिय निष्कंप स्वाभाविक अवस्थारूप सिद्ध पर्यायको धारण करता है। इसकारण पुद्गलका निमित्त पाकर जीव क्रियावान् जानो। और कालका बहिरंग कारण पाकर पुद्गल अनेक स्कंधरूप विकारको धारण करता है । इसकारण काल पुद्गलकी क्रियामें सहकारी कारण जानो । परंतु इतना विशेष है कि जीवद्रव्यकी भांति पुद्गल निष्क्रिय कभी भी नहीं होता । जीव शुद्ध होने के बाद क्रियावान् किसी कालमें भी नहीं होगा। पुद्गलका यह नियम नहीं है। सदा क्रियावान् परसहायसे रहता है । ९८ ॥ आगे मूर्त-अमूर्तका लक्षण कहते हैं-[ ये ] जो [ जीवैः ] जीवाः. २ पुद्गलकरणामावाद . ३ निष्पादकः.४ पत्र यथा शुद्धामाऽनुभूतिबलेन कमेपुद्गलानामभावारिसडावां निष्क्रियत्वं भवति न तथा पुगतानां । कस्मारकालस्यैव सर्वत्रव विद्यमानत्वादित्यर्थः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002941
Book TitlePanchastikaya
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1969
Total Pages294
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size18 MB
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