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पञ्चास्तिकायः।
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सर्वतो विस्तृतत्वात्पृथुलः । निश्चयनयेनैकप्रदेशोऽपि व्यवहारनयेनाऽसंख्यातप्रदेश इति ।। ८३ ॥ धर्मस्यैवावशिष्टस्वरूपाख्यानमेतत् ;
अगुरुगलघुगेहि सया तेहिं अणंतेहिं परिणदं णिच्छ । गदिकिरियाजुत्ताणं कारणभूदं सयमकर्ज ॥ ८४ ॥
अगुरुलधुकैः सदा तैः अनंतैः परिणतः नित्यः ।
गतिक्रियायुक्तानां कारणमूतः स्वयमकार्यः ।। ८४ ॥ अपि च धर्मः अगुरुलघुमिगुणैरगुरुलघुत्वाभिधानस्य स्वरूपप्रतिष्ठत्वनिबंधनस्य स्वमावस्याविभागपरिच्छेदैः प्रतिसमयसंभवत्षट्स्थानपतितवृद्धिहानिभिरनंतः सदा परिणणतजीवप्रदेशेषु परमानंदैकलक्षणसुखरसास्वादसमरसीमाववत् सिद्धक्षेत्रे सिद्धराशिवत् पूर्णघटे जलव तिलेषु तैलवद्वा स्पृष्टः परस्परप्रदेशव्यवधानरहितत्वेन निरंतरः न च निर्जनप्रदेशे भावितात्ममुनिसमूहवनगरे जनचयवद्वा सांतरः, बहुलं अभव्यजीवप्रदेशेषु मिथ्यात्वरागादिवल्लोके नभोका पृथुलोऽनाधंतरूपेण स्वभावविस्तीर्णः न च केवलिसमुद्घाते जीवप्रदेशवल्लोके वस्त्रादिप्रदेशविस्तारवद्वा पुनरिदानी विस्तीर्णः । पुनरपि किंविशिष्टः ? असंखादियपदेसं निश्चयेनाखंडैकप्रदेशोऽपि समूतव्यवहारेण लोकाकाशप्रमितासंख्यातप्रदेश इति सूत्रार्थः ॥ ८३ ॥ अथ धर्मस्यैवावशिष्टस्वरूपं प्रतिपादयति;-अगुरुगलहुगेहि सदा तेहि अणंतेहि परिणदं सहित प्रवर्तमान है। वह धर्मद्रव्य कैसा है ? [ अरसः ] पांच प्रकारके रसरहित [ अवर्णगंधः ] पांच प्रकारके वर्ण और दो प्रकारके गंधरहित [ अशब्दः ] शब्दपर्यायसे रहित [ अस्पर्शः ] आठ प्रकारके स्पर्श गुणरहित है । फिर कैसा है ? [ लोकावगाढः ] समस्त लोकको व्याप्त होकर रहता है [ स्पृष्टः ] अपने प्रदेशोंके स्पर्शसे अखंडित है [ पृथुलः ] स्वभावसेही सब जगह विस्तृत है । और [ असं. ख्यातप्रदेशः ] यद्यपि निश्चयनयसे एक अखंडित द्रव्य है तथापि व्यवहारसे असंख्यातप्रदेशी है। भावार्थ-धर्मद्रव्य स्पर्श रस गंध वर्ण गुणोंसे रहित है इस कारण अमूर्तीक है, क्योंकि स्पर्श रस गंध वर्णवती वस्तु सिद्धांतमें मूर्तीक ही है । ये चार गुण जिसमें नहीं हों उसीका नाम अमूर्तीक है । इस धर्मद्रव्यमें शब्द भी नहीं है क्योंकि शब्द भी मूर्तीक होते हैं, इस कारण शब्दपर्यायसे रहित है। लोकप्रमाण असंख्यातप्रदेशी है। यद्यपि अखंडद्रव्य है परंतु भेद दिखानेके लिये परमाणुओं द्वारा असंख्यातप्रदेशी गिना जाता है ।। ८३ ॥ आगे फिर भी धर्मद्रव्यका स्वरूप कुछ विशेषतासे दिखाया जाता है;-[ सदा ] सदा काल [ तैः ] उन द्रव्योंके अस्तित्व करनेवाले [ अगुरुलघुकैः ] अगुरुलघु नामक [ अनंतः ] अनंत गुणोंसे [ परिणतः ]
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