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________________ [१३] ___ इस परसे वांचक देखेंगे कि श्रीमद्के लेख अधिकारीके लिए उपयोगी हैं। सभी वांचक उसमें रस नहीं ले सकते। टीकाकारको उसकी टीकाका कारण मिलेगा परन्तु श्रद्धावान तो उसमें से रसही लूटेगा। उनके लेखोंमें सत् निथर रहा है, ऐसा मुझे हमेशा भास हुआ है । उन्होंने अपना ज्ञान दिखानेके लिये एक भी अक्षर नहीं लिखा। लिखनेका अभिप्राय वांचकको अपने आत्मानन्दमें भागीदार बननेका था। जिसे आत्मक्लेश टालना है, जो अपना कर्तव्य जाननेको उत्सुक है उसे श्रीमद्के लेखोंमेंसे बहुत मिल जायगा ऐसा मुझे विश्वास है, फिर भले वह हिन्दू हो या अन्य धर्मी । .."जो वैराग्य ( अपूर्व अवसर एवो क्यारे आवशे? ) इस काव्यकी कड़ियोंमें झलक रहा है वह मैंने उनके दो वर्षके गाढ़ परिचयमें प्रतिक्षण उनमें देखा था। उनके लेखोंकी एक असाधारणता यह है कि स्वयं जो अनुभव किया वही लिखा है। उसमें कहीं भी कृत्रिमता नहीं है । दूसरे पर प्रभाव डालने के लिये एक पंक्ति भी लिखी हो ऐसा मैंने नहीं देखा। खाते, बैठते, सोते, प्रत्येक क्रिया करते उनमें वैराग्य तो होता ही। किसी समय इस जगतके किसी भी वैभवमें उन्हें मोह हुआ हो ऐसा मैंने नहीं देखा। उनकी चाल धीमी थी और देखनेवाला भी समझ सकता कि चलते हुये भी ये अपने विचारमें ग्रस्त हैं । आँखोंमें चमत्कार था अत्यन्त तेजस्वी, विह्वलता जरा भी नहीं थी। दृष्टिमें एकाग्रता थी। चेहरा गोलाकार, होंठ पतले, नाक नोंकदार भी नहीं चपटी भी नहीं, शरीर इकहरा, कद मध्यम, वर्ण श्याम, देखाव शांत मूर्तिका-सा था। उनके कण्ठमें इतना अधिक माधुर्य था कि उन्हें सुनते हुए मनुष्य थके नहीं। चेहरा हंसमुख और प्रफुल्लित था, जिस पर अन्तरानन्दकी छाया थी। भाषा इतनी परिपूर्ण थी कि उन्हें अपने विचार प्रगट करनेके लिये कभी शब्द ढूंढ़ना पड़ा है, ऐसा मुझे याद नहीं। पत्र लिखने बैठे उस समय कदाचित् ही मैंने उन्हें शब्द बदलते देखा होगा, फिरभी पढ़ने वालेको ऐसा नहीं लगेगा कि कहीं भी विचार अपूर्ण हैं या वाक्य-रचना खंडित है; अथवा शब्दोंके चुनावमें कमी है । ___यह वर्णन संयमीमें संभवित है। बाह्याडम्बरसे मनुष्य वीतरागी नहीं हो सकता । वीतरागता आत्माकी प्रसादी है। अनेक जन्मके प्रयत्नसे वह प्राप्त होती है और प्रत्येक मनुष्य उसका अनुभव कर सकता है। रागभावको दूर करनेका पुरुषार्थ करनेवाला जानता है कि रागरहित होना कितना कठिन है। यह रागरहित दशा कवि ( श्रीमद् ) को स्वाभाविक थी, ऐसी मेरे ऊपर छाप पड़ी थी। __ मोक्षकी प्रथम पैड़ी वीतरागता है। जबतक मन जगतकी किसीभी वस्तुमें फंसा हुआ है तबतक उसे मोक्षकी बात कैसे रुचे ? और यदि रुचे तो वह केवल कानको ही–अर्थात् जैसे हम लोगोंको अर्थ जाने या समझे विना किसी संगीतका स्वर रुच जाय वैसे । मात्र ऐसी कर्णप्रिय कीड़ामेंसे मोक्षका अनुसरण करनेवाले आचरण तक आने में तो बहुत समय निकल जाय। अंतरंग वैराग्यके विना मोक्षकी लगन नहीं होती । वैराग्यका तीव्र भाव कविमें था। ..'व्यवहारकुशलता और धर्मपरायणताका जितना उत्तम मेल मैंने कविमें देखा उतना किसी अन्यमें नहीं देखा।" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002941
Book TitlePanchastikaya
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1969
Total Pages294
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size18 MB
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