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________________ [१४] गृहस्थाश्रम - सं० १९४४ माघ सुदी १२ को १९ वर्षकी आयुमें उनका पाणिग्रहणसंस्कार, गांधीजी के परममित्र स्वo रेवाशंकर जगजीवनदास महेताके बड़े भाई पोपटलालकी पुत्री झबकबाईके साथ हुआ था । इसमें दूसरोंकी 'इच्छा' और 'अत्यन्त आग्रह' ही कारणरूप प्रतीत होते हैं' । पूर्वोपार्जित कर्मोंका भोग समझकर ही उन्होंने गृहस्थाश्रममें प्रवेश किया; परन्तु इससे भी दिन-पर-दिन उनकी उदासीनता और वैराग्यका बल बढ़ता ही गया । आत्मकल्याणके इच्छुक तत्त्वज्ञानी पुरुषके लिए विषम परिस्थितियां भी अनुकूल बन जाती हैं, अर्थात् विषमतामें उनका पुरुषार्थ और भी अधिक निखर उठता है । ऐसे ही महात्मा पुरुष दूसरोंके लिये भी मार्गप्रकाशक - दीपकका कार्य करते हैं । श्रीमद्जी गृहस्थाश्रम में रहते हुए भी अत्यन्त उदासीन थे। उनकी दशा, छहढालाकार पं० दौलतरामजी के शब्दों में 'गेही पै, गृहमें न रचै ज्यौं जलतें भिन्न कमल हैं' - जैसी निर्लेप थी । उनकी इस अवस्था में भी यही मान्यता रही कि "कुटुम्बरूपी काजलकी कोठड़ीमें निवास करने से संसार बढ़ता है । उसका कितना भी सुधार करो तो भी एकान्तवाससे जितना संसारका क्षय हो सकता है उसका शतांश भी उस काजलकी कोठड़ी में रहनेसे नहीं हो सकता, क्योंकि वह कषायका निमित्त है और अनादिकालसे मोहके रहनेका पर्वत है ।" फिर भी इस प्रतिकूलता में वे अपने परिणामों की पूरी संभाल रखकर चले। यहां उनके अंतरके भाव एक मुमुक्षुको लिखे गये पत्र में इसप्रकार व्यक्त हुए है 'संसार स्पष्ट प्रीतिसे करनेकी इच्छा होती हो तो उस पुरुषने ज्ञानी के वचन सुने नहीं अथवा ज्ञानीके दर्शन भी उसने किये नहीं ऐसा तीर्थंकर कहते हैं ।' 'ज्ञानी पुरुषके वचन सुननेके बाद स्त्रीका सजीवन शरीर अजीवनरूप भास्यमान हुए बिना रहे नहीं ।' इससे स्पष्ट प्रगट होता है कि वे अत्यन्त वैरागी महापुरुष थे 1 सफल व्यापारी । व्यापारिक झंझट और धर्मसाधनाका मेल प्रायः कम बैठता है, परन्तु आपका धर्म-आत्मचिन्तन तो साथ में ही चलता था । वे कहते थे कि धर्मका पालन कुछ एकादशी के दिन ही, पर्याषण में ही अथवा मंदिरोंमें ही हो और दुकान या दरबारमें न हो ऐसा कोई नियम नहीं, बल्कि ऐसा कहना धर्मतत्त्वको न पहचानने के तुल्य है । श्रीमद्जी के पास दुकान पर कोई न कोई धार्मिक पुस्तक और दैनंदिनी (डायरी ) अवश्य होती थी । व्यापारकी बात पूरी होतेही फौरन धार्मिक पुस्तक खुलती या फिर उनकी वह डायरी कि जिसमें कुछ न कुछ मनके विचार वे लिखते ही रहते थे । उनके लेखोंका जो संग्रह प्रकाशित हुआ है उसका अधिकांश भाग उनकी नोंधपोथीमेंसे लिया गया है । श्रीमद्जी सर्वाधिक विश्वासपात्र व्यापारीके रूपमें प्रसिद्ध थे । वे अपने प्रत्येक व्यवहारमें सम्पूर्ण प्रामाणिक थे । इतना बड़ा व्यापारिक काम करते हुये भी उसमें उनकी आसक्ति नहीं थी । १. देखिये- 'श्रीमद्राजचन्द्र' (गुजराती) पत्र क्र० ३० २. 'श्रीमद्राचचन्द्र' (गुजराती) पत्र क्र० १०३, ३. 'श्रीषदुराजचन्द्र' (गुजराती) पत्र क्र० ४५४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002941
Book TitlePanchastikaya
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1969
Total Pages294
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size18 MB
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