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लौटा था; मुझे भाषाज्ञानका भी अभिमान था । मुझे विलायतकी हवा भी कम नहीं लगी थी । उन दिनों विलायत से आया मानों आकाशसे उतरा था ! मैंने अपना समस्त ज्ञान उलट दिया और अलग अलग भाषाओंके शब्द पहले तो मैंने लिख लिये, क्योंकि मुझे वह क्रम कहाँ याद रहने वाला था ? और बाद में उन शब्दोंको मैं बांच गया । उसी क्रमसे रायचंदभाईने धीरेसे एकके बाद एक सब शब्द कह सुनाये। मैं राजी हुआ, चकित हुआ और कविकी स्मरणशक्तिके विषय में मेरा उच्च विचार हुआ । विलायतकी हवाका असर कम पड़ने के लिए यह सुन्दर अनुभव हुआ कहा जा सकता है । ...कविके साथ यह परिचय बहुत आगे बढ़ा कवि संस्कारी ज्ञानी थे ।
मुझ पर तीन पुरुषोंने गहरा प्रभाव डाला है-- टाल्सटॉय, रस्किन और रायचंदभाई । टाल्सटॉयने अपनी पुस्तकों द्वारा और उनके साथ थोड़े पत्रव्यवहारसे, रस्किनने अपनी एकही पुस्तक 'अन्टु दिस लास्ट' से - जिसका गुजराती नाम मैंने 'सर्वोदय' रखा है, और रायचंदभाईने अपने गाढ़ परिचयसे । जब मुझे हिन्दूधर्म में शंका पैदा हुई उस समय उसके निवारण करने में मदद करने वाले रायचंदभाई थे । सन् १८९३ में दक्षिण अफ्रिका में मैं कुछ क्रिश्चियन सज्जनोंके विशेष सम्पर्क में आया । उनका जीवन स्वच्छ था । वे चुस्त धर्मात्मा थे । अन्य-धर्मियोंको क्रिश्चियन होनेके लिए समझाना उनका मुख्य व्यवसाय था । यद्यपि मेरा और उनका सम्बन्ध व्यावहारिक कार्य को लेकर ही हुआ था, तो भी उन्होंने मेरे आत्माके कल्याणके लिये चिन्ता करना शुरू कर दिया । उस समय मैं अपना एकही कर्तव्य समझ सका कि जब तक मैं हिन्दूधर्मके रहस्यको पूरी तौरसे न जान लू और उससे मेरे आत्माको असंतोष न हो जाय, तबतक मुझे अपना कुलधर्म कभी नहीं छोड़ना चाहिये | इसलिये मैंने हिन्दूधर्म और अन्य धर्मोकी पुस्तकें पढ़ना शुरू कर दीं। क्रिश्चियन और इस्लाम धर्मकी पुस्तकें पढ़ीं । विलायतसे अंग्रेज मित्रोंके साथ पत्रव्यवहार किया । उनके समक्ष अपनी शंकायें रक्खीं तथा हिन्दुस्तानमें जिनके ऊपर मुझे कुछ भी श्रद्धा थी उनसे पत्रव्यवहार किया | उनमें रायचंदभाई मुख्य थे । उनके साथ तो मेरा अच्छा सम्बन्ध हो चुका था, उनके प्रति मान भी था, इसलिए उनसे जो भी मिल सके उसे लेनेका मैंने विचार किया । उसका फल यह हुआ कि मुझे शांति मिली । हिन्दूधर्म में मुझे जो चाहिये वह मिल सकता है, ऐसा मनको विश्वास हुआ। मेरी इस स्थितिके जिम्मेदार रायचंदभाई हुये, इससे मेरा उनके प्रति कितना अधिक मान होना चाहिये इसका पाठक लोग अनुमान कर सकते हैं ।"
इसप्रकार उनके प्रबल आत्मज्ञान के प्रभाव के कारण ही महात्मा गांधीको सम्तोष हुआ और उन्होंने धर्मपरिवर्तन नहीं किया' ।
और भी वर्णन करते हुये गांधीजीने उनके बारेमें लिखा है :
“श्रीमद्राजचन्द्र असाधारण व्यक्ति थे । उनके लेख उनके अनुभव के बिन्दु समान हैं । उन्हें पढ़नेवाले, विचारनेवाले और उसके अनुसार आचरण करनेवालेको मोक्ष सुलभ होवे । उसकी कषायें मन्द पड़ें, उसे संसार में उदासीनता आवे, वह देहका मोह छोड़कर आत्मार्थी बने ।
१. श्रीमदुजी द्वारा म० गांधीको उनके प्रश्नों के उत्तर में लिखे गये कुछ पत्र, क्र० ५३०, ५७०, ७१७ 'श्रीमद् राजचन्द्र' -ग्रन्थ (गुजराती)
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