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श्रीमद्रराजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् ।
अथाज्ञानिनो ह्यज्ञानसमवायो निष्फलः । ज्ञानित्वं तु ज्ञानसमवायाभावात् नास्त्येव । ततोऽज्ञानीति वचनमज्ञानेन सहैकत्वमवश्यं साधयत्येव । सिद्धे चैवमज्ञानेन सहैकत्वे ज्ञानेनापि सहैकत्वमवश्यं सिद्धयतीति ।। ४९ ।
समवायस्थ पदार्थांतरत्वनिरासोऽयम् ;
समवत्ती समवाओ अgधन्भूदो य अजुदसिद्धो य । तम्हा दव्वगुणाणं अजुदा सिद्धिति णिद्दिट्टा ॥५०॥ समवर्तित्वं समवायः अपृथग्भूतत्वमयुतसिद्धत्वं च । तस्माद्द्रव्यगुणानां अयुता सिद्धिरिति निर्दिष्टा ॥५०॥
कारणेनाज्ञानित्वं पूर्वमेव तिष्ठति अथवा स्वभावेनाज्ञानित्वं तथैव ज्ञानित्वमपि स्वभावेनैव गुणत्वादिति । अत्र यथा मेघपटलावृते दिनकरे पूर्वमेव प्रकाशस्तिष्ठति पश्चात्पटलविघटनानुसारेण कटो भवति तथा जीवे निश्चयनयेन क्रमकरणव्यवधानरहितं त्रैलोक्योदरविवरवर्तिसमस्तवस्तुगतानंतधर्मप्रकाशकमखंड प्रतिभासमयं केवलज्ञानं पूर्वमेव तिष्ठति, किंतु व्यवहारनयेनानादिकमवृतः सन्न ज्ञायते, पश्चात्कर्मपटलविघटनानुसारेण प्रकटं भवति, न च जीवाद्बहिर्भूतं ज्ञानं किमपीति पश्चात्समवायसंबंधबलेन जीवे संबद्धं न भवतीति भावार्थः ॥ ४९ ॥ अथ गुणअज्ञानी था तो वह अज्ञानी था, अज्ञानके संबंधसे कुछ प्रजोजन नहीं है, स्वभावसे ही अज्ञानी ठहरता है । इसकारण यह बात सिद्ध हुई कि – ज्ञानगुणका यदि प्रदेशभेदरहित ज्ञानीसे एकभाव माना जाय तो आत्माके अज्ञानगुणसे एकभाव होते हुये अज्ञानी पद ठहरता है । इसकारण ज्ञान और ज्ञानीमें अनादिकी अनंत एकता है । ऐसी एकता है कि ज्ञानके अभाव से ज्ञानीका अभाव हो जाता है, और ज्ञानीके अभाव से ज्ञानका अभाव हो जाता है । और यदि यों नहीं माना जाय तो आत्मा अज्ञानभावकी एकतासे अवश्यमेव अज्ञानी कहलायेगा । और यदि ऐसा कहा जाता है कि अज्ञानका नाश करके आत्मा ज्ञानी होता है, सो यह कथन कर्म - उपाधि - संबंध से व्यवहारनयकी अपेक्षासे है । जैसे सूर्य मेघपटलद्वारा आच्छादित होनेसे प्रभारहित कहा जाता है, परंतु उस प्रभावसे सूर्य अपने स्वभावसे त्रिकाल पृथकू नहीं होता पटलकी उपाधि से प्रभासे हीन - अधिक कहा जाता है । वैसे ही यह आत्मा अनादि पुद्गल - उपाधि - संबंधसे अज्ञानी हुआ प्रवर्तित है । परंतु वह आत्मा अपने स्वाभाविक अखंड केवलज्ञान स्वभावसे-स्वरूपसे किसी कालमें भी पृथक नहीं होता । कर्मकी उपाधि से ज्ञानकी हीनता - अधिकता कही जाती है । इस कारण निश्चयसे ज्ञानीसे ज्ञानगुण पृथकू नहीं है। कर्म - उपाधिके वश अज्ञानी कहा जाता है, कर्मके घटनेसे ज्ञानी होता है । यह कथन व्यवहारनयकी अपेक्षा से है ॥ ४९ ॥ आगे गुण-गुणीमें एकभावके विना १ अथ गुणगुणिनोः कथञ्चिदेकत्वं विहायान्यः कोऽपि समवायो नास्तीति समर्थयति ।
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