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________________ ५ भीमराजचन्द्रजैनशाखमाअयाम् । समर्थत्वादचेतयमानोऽवेतन एव स्यात् । ज्ञानश्च यदि ज्ञानिनोऽयांतरभूतं तदा तत्के अंशमंतरेण देवदवरहितपरशुववत्कर्तृत्वव्यापारासमर्थत्वादचेतयमानमचेतनमेव स्याद । न च ज्ञानज्ञानिनोर्युतसिद्धयोत्संयोगेन चेतनत्वं द्रव्यस्य निर्विशेषस्य गुणानां निराश्रयाणां शून्यत्वादिति ॥४८॥ अयेन जडो भवति । अथ मतं यथा भिन्नदात्रोपकर गेन देवदत्तो लावको भवति तथा भिन्नझानेन ज्ञानी भवतीति । नैवं वक्तव्यं । छेदनक्रियां प्रति दात्रं बाझोपकरणं वीर्यातरायक्षयोपशमअनितः पुरुस्य शक्तिविशेषस्तत्राभ्यंतरोपकरणं शक्त्यभावे दात्रोपकरणे हस्तव्यापारे च सति छेदनक्रिया नास्ति तथा प्रकाशोपाध्यायादिबहिरंग सहकारिसद्भावे सत्यभ्यंतरज्ञानोपकरणाभावे पुरुषस्य पदार्थपरिच्छितिक्रिया न भवतीति । अत्र यस्य ज्ञानस्याभावान्जीवो जडः सन् वीतरागसहजसुन्दरानंदस्यन्दि पारमार्थिकसुखमुगदेयमजानन् संसारे परिभ्रमति तदेव रागादिविझल्पवह भी जलानेकी क्रियासे रहित हो जाता । क्योंकि गुणगुणी परस्पर जुदा होनेपर कार्य करने में असमर्थ होते हैं। यदि दोनोंकी एकता हो वो जलाने की क्रियामें समर्थ हो। उसीप्रकार ज्ञानी और ज्ञानके परस्पर जुदा होनेपर जानने की क्रियामें असमर्थता होती है। मानके विना ज्ञानी कैसे जाने ? और ज्ञानोके विना शान निराश्रय होता तो यह भी जाननेरूप क्रियामें असमर्थ होता । ज्ञानी और ज्ञानके परस्पर जुदा होनेपर दोनों अचेतन होते हैं । और यदि कोई यहां यह कहे कि पृथकरूप दांतसे काटनेपर पुरुष ही काटनेवाला कह लाता है, इसीप्रकार यदि प्रथकरूप ज्ञानके द्वारा आत्माको जाननेवाला मानो तो इसमें क्या दोष है ? इसका उत्तर-काटने की क्रियामें दांत बाझ निमित्त है, उपादान काटनेकी शक्ति पुरुषमें है । यदि पुरुषमें काटनेकी शक्ति न होती तो दांत कुछ कार्यकारी नहीं होते । इसलिये पुरुषका गुण प्रधान है। उस अपने गुणसे पुरुषके एकता है। उसी कारण ज्ञानी और ज्ञानके एक संबंध है। पुरुष और दांतकासा संबंध नहीं है। गुणगुणी वे ही कहलाते हैं जिनके प्रदेशोंकी एकता हो । ज्ञान और ज्ञानीमें संयोगसंबंध १ यथाशने गुणिनः सकाशादस्यतभिन्नः सन्नुष्णत्वलक्षणगुणोऽग्नेदंहमक्रिया प्रत्ययमसमर्षः सनिश्चयेन शीतको भवति । तथा जीवात् गुणिनः सकाशादत्यंमिनो ज्ञानगुणः पदार्थपरिग्छित्ति प्रत्ययमसमर्थ: सनियमेन जडो भवति । यथोष्णगुणादत्यन्तमिन्नः सन् वह्निर्गुणी दहनक्रिया प्रत्यसमर्थः सनिश्चयेन शीतलो भवति । तथा ज्ञानगुणादत्यंतभिन्नः सनु जीवो गुणी पदार्थपरिच्छित्ति प्रत्यसमय: सनिश्चयेन बडो भवति । अथ मत । यथा भिन्नदात्रोपकरणेन देवदत्तो लावको भवति तथा भिन्नशानेन ज्ञानी भवति इति नैव वक्तव्यं । छेदनक्रिया प्रति दात्र बाहोपकरणं । वीर्यातरायक्षयोपशमबनितः पूषशक्तिवि. शेषस्स्वभ्यंतरोपकरणं । शक्त रमावे दात्रोपकरणे हि तयापारे च सति पथा छेदत्रिया नास्ति, तथा प्रकाशोपाध्य.यादिबहिरंगसहकारिसद्धावे सत्यभ्यंतरशानोपकरणापावे पुरुषस्य पदार्थपरिच्छित्तिक्रिया न भवतीति । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002941
Book TitlePanchastikaya
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1969
Total Pages294
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size18 MB
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