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________________ पञ्चास्तिकायः। मोहकलङ्कन समुच्छिन्नकृत्स्नज्ञानावरणतयाऽत्यंतमुन्मुद्रितसमस्तानुभावेन चेतकस्वभावेन समस्तवीर्यांतरायक्षयासादितानंतवीर्या अपि निजीर्णकर्मफलत्वादत्यंतकृतकृत्यत्वाच्च स्वतोऽ व्यतिरिक्तं स्वाभाविकं सुखं ज्ञानमेव चेतयंत इति ॥ ३८ ॥ अत्र कः किं चेतयत इत्युक्तं; सव्वे खलु कम्मफलं थावरकाया तसा हि कजजुदै । पाणित्तमदिकता णाणं विदति ते जीवा ॥ ३९॥ सर्वे खलु कर्मफलं स्थावरकायानसा हि कार्ययुतं । - प्राणित्वमतिक्रांताः ज्ञानं विदन्ति ते जीवाः ॥ ३९॥ चेतयंतेऽनुभवन्ति उपलभंते . विदंतीत्येकार्थाश्चेतनानुभृत्युपलब्धिवेदनानामेकार्थविहेण कर्मफलकर्मकार्यज्ञानरूपेण त्रिविधेनेति ॥ ३८ ॥ अथात्र कः किं चेतयतीति निरूपयति इति निरूपयति इति कोर्थः इति पृष्टे प्रत्युत्तरं ददाति एवं प्रश्नोत्तररूपपातनिकाप्रस्तावे सर्वत्रेति शब्दस्यार्थो ज्ञातव्यः । सब्वे खलु कम्मफलं थावरकाया विदन्ति ते सर्व जीवाः प्रसिद्धाः पंचप्रकाराः स्थावरकाया जीवा अव्यवसुखदुःखानुभवरूपं शुभाशुभकर्मफलं विदंत्यनुभवन्ति तसा हि कजजुदं द्वीन्द्रियादयस्त्रसजीवाः पुनस्तदेव कर्मफलं निर्विकारपरमानंदैकस्वभावमात्मसुखमलभमानास्संतो विशेषरागद्वेषरूपा तु या कार्यचेतना तत्सहितमनुभवन्ति पाणित्तमदिकंता णाणं विदंति ते जीवा ये तु विशिष्टशुद्धात्मानुभूतिभावनासमुत्पन्नपरइन कर्मोके उदयसे आत्मीक शक्तिसे रहित हुये परिणमते हैं। इस कारण विशेषताकर सुखदुखरूप कर्मफलको भोगते हैं। निरुद्यमी हुये विकल्परूप इष्ट अनिष्ट कार्य करनेको असमर्थ हैं इसलिये इन जीवोंको मुख्यतासे कर्मफल-चेतना गुणके धारक जानों । और जो जीव ज्ञानावरण, दर्शनावरण और मोह कर्मके विशेष उदयसे अतिमलीन हुये चैतन्यशक्तिसे हीन परणमते हैं परंतु उनके वीर्यातराय कर्मका क्षयोपशम कुछ अधिक हुआ है, इस कारण सुखदुःखरूप कर्मफलके , भोगनेको इष्ट अनिष्ट पदार्थोंमें रागद्वेष मोह लिये उद्यमी हये कार्य करनेको समर्थ है, वे जीव मुख्यतासे कर्मचेतनागुणसंयुक्त जानना । और जिन जीवोंके सर्वथा प्रकार ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोह और अंतरायकर्म गये हैं; अनंतज्ञान अनंतदर्शन अनंतसुख, अनंतवीर्य ये गुण प्रगट हुये हैं, कर्म और कर्मफलके भोगनेमें विकल्परहित हैं और आत्मीक पराधीनतारहित स्वाभाविक सुखमें लीन होगये हैं, वे ज्ञानचेतनागुणसंयुक्त कहलाते हैं ॥ ३८ ॥ आगे इस तीन प्रकारकी चेतनाके धारक कौन कौन जीव हैं सो दिखाया जाता है-[ खल ] निश्चयसे [ सर्वे ] पृथिवी काय आदि जो समस्त. ही पाँच प्रकार [ स्थावरकायाः ] स्थावर जीव हैं वे [ कर्मफलं ] कर्मोंका जो दुखसुखरूप फल उसको प्रगटरूपसे रागद्वेषकी विशेषता रहित अप्रगटरूप अपनी शक्त्यनुसार [ विंदन्ति | वेदते हैं। क्योंकि एकेन्द्रिय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002941
Book TitlePanchastikaya
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1969
Total Pages294
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size18 MB
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