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अत्र जीवाभावो मुक्तिरिति निरस्तम्:
श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् ।
सस्सदमध उच्छेदं भव्वमभव्वं च सुष्णमिदरं च । विष्णाणमविण्णाणं ण वि जुज्जदि असदि सम्भावे ॥ ३७ ॥
शाश्वतमयोच्छेदो भव्यमभव्यं च शून्यमितरच ।
विज्ञानमविज्ञानं नापि युज्यते असति सद्भावे ॥ ३७ ॥
द्रव्यं द्रव्यतया शाश्वतमिति नित्ये द्रव्ये पर्यायाणां प्रतिसमयमुच्छेदं इति, द्रव्यस्य सर्वदा अभूतपर्यायैः भाव्यमिति द्रव्यस्य सर्वदा भूतपर्यायैरभाव्यमिति द्रव्यमन्यद्रव्यैः निवृत्तिकाले साक्षादुपादेयो भवतीति तात्पर्य ॥ ३६ ॥ अथ जीवाभावो मुक्तिरिति सौगतमतं विशेषेण निराकरोति; - सस्सदमधमुच्छेदं सिद्धावस्थायां तावटृकोत्कीर्णज्ञायकैकरूपेणाविनश्वरत्वाद्द्रव्यरूपेण शाश्वतस्वरूपमस्ति अथ अहो पर्यायरूपेणागुरुलघुकगुणषट्स्थानगतानि वृद्ध - पेक्षयोच्छेदोस्ति भव्वमभव्वं च निर्विकारचिदानंदैकस्वभावपरिणामेन भवनं परिणमनं पर्यायरूप जीव उपजता है । इस कारण द्रव्यकर्म भावकर्मरूप अशुद्ध परिणति कारण है और चार गतिरूप जीवका होना कार्य है । सिद्ध कार्यरूप नहीं है, क्योंकि द्रव्यकर्म भावकर्मका जब सर्वथा प्रकारसे नाश होता है, तब ही सिद्धपद होता है । और संसारी जीव द्रव्य - भावरूप अशुद्ध परिणतिको उपजाता हुआ चारगतिरूप कार्यको उत्पन्न करता है । इस कारण संसारी जीव कारण भी कहा जाता है । सिद्ध कारण नहीं हैं, क्योंकि सिद्धोंसे चार गतिरूप कार्य नहीं होता । सिद्ध के अशुद्ध परिणति सर्वथा नष्ट होगई है । सो अपने शुद्ध स्वरूपको ही उपजाते हैं। और कुछ भी नहीं उपजाते ॥ ३६ ॥ आगे कई इक बौद्धमतो जीवका सर्वथा अभाव होनेको ही मोक्ष कहते हैं । उनका निषेध करते हैं; - [ सद्भावे ] मोक्षावस्था में शुद्ध सत्तामात्र जीव वस्तुके [ असति ] अभाव होते हुए [ शाश्वतं ] जीव द्रव्यस्वरूपसे अविनाशी है ऐसा कथन [ नापि युज्यते ] संभवित नहीं है । जब मोक्षमें जीव ही नहीं तो शाश्वत कौन होगा ? [ अथ ] और [ उच्छेदः ] नित्य जीवद्रव्यके समयसमयमें पर्यायकी अपेक्षासे नाश होता है यह भी कथन नहीं बनेगा । जब मोक्षमें वस्तु ही नहीं है तो नाश किसका कहा जाय ? (च) और [ भव्यं ] समयसमय में शुद्ध भावों के परिणमन का होना सो भव्य भाव है [ अभव्यं ] जो अशुद्ध भाव विनष्ट हुये उनका अन होना अभव्यभाव कहाता है । ये दोनों प्रकारके भव्य अभव्य भाव यदि मुक्तमें जीव नहीं हो तो
१. सिद्धावस्थायां तावट्टोस्कीण ज्ञायर्ककरूपेण विनश्वरत्वाद्रव्यरूपेण शाश्वतस्वरूपमस्ति २ अथ पर्यायरूपेणागुरुलघुकगुणषट्स्थानगतानि वृद्धयपेक्षयोच्छेदोऽस्ति. ३ निर्विकारचिदानंदेकस्वभावपरिणामेन भवनं भव्यस्थ ४ प्रतीत मिध्यात्वपापादिविभावपरिणामेन भवनं वपरिणमनम भव्यत्वं च ।
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