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________________ श्रीमद्रराजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । सिद्धानां हि द्रव्यप्राणधारणात्मको मुख्यत्वेन जीवस्वभावो नास्ति । न च जीवस्वभावस्य सर्वथाभावोऽस्ति भावप्राणधारणात्मकस्य जीवस्वभावस्य मुख्यत्वेन सद्भावात् । न तेषां शरीरेण सह नीरक्षीरयोरिवैक्येन वृत्तिः । यतस्ते तत्संपर्कहेतुभूतकषाययोगविप्रयोगादतीतानंतरशरीरमात्रावगाहपरिणतत्वेऽप्यत्यंतभिन्नदेहाः । वाचां गोचरमतीतश्च तन्महिमा । यतस्ते लौकिकप्राणधारणमंतरेण शरीरसंबंधमंतरेण च परिप्राप्तनिरुपाधिस्वरूपाः सततं प्रतपंतीति ॥ ३५ ॥ वस्थायां सर्वथा जीवाभावोपि नास्ति च । सिद्धाः कथंभूताः। भिण्णदेहा अशरीराव शुद्धा मनो विपरीताः शरीरोत्पत्तिकारणभूताः 'मनोवचनकाययोगाः क्रोधादिकषायाश्च न संतीति भिन्नदेहा अशरीरा ज्ञातव्याः । पुनश्च कथंभूताः । वचिगोयरमतीदा सांसारिकद्रव्यप्राणभावप्राणरहिता अपि विजयंते प्रतपंतीति हेतोर्वचनगोचरातीतास्तेषां महिमास्वभावः अथवा सम्यक्त्वाद्यष्टगुणैस्तदंतर्गतानंतगुणैर्वा सहितास्तेन कारणेन वचनगोचरातीता इति । अथात्र यथा पर्यायरूपेणपदार्थानां क्षणिकत्वं दृष्ट्वातिव्याप्तिं कृतद्रव्यरूपेणापि क्षणिकत्वं मन्यते सौगतः तथेन्द्रियादिदर्शनप्राणसहितस्याशुद्धजीवस्याभावं दृष्ट्वा मोक्षावस्थायां केवलज्ञानाद्यनंतगुणसहिप्राण भी हैं [ ते सिद्धाः ] वे सिद्ध [ भवन्ति ] होते हैं। कैसे हैं वे सिद्ध ? [भिन्नदेहाः ] शरीररहित अमूत्तीक हैं। फिर कैसे हैं ? [ वाग्गोचरमतीताः ] जिनकी महिमा वचनातीत है । भावार्थ-सिद्धांतमें प्राण दो प्रकारके कहे हैं-एक निश्चय, दूसरा व्यवहार । जितने शुद्ध ज्ञानादिक भाव हैं वे तो निश्चयप्राण हैं और जो अशुद्ध इन्द्रियादिक प्राण हैं सो व्यवहारप्राण हैं । प्राण उसको कहते हैं जिसके द्वारा जीवद्रव्यका अस्तित्व है। जीवभी संसारी और सिद्ध के भेदसे दो प्रकारके हैं। जो अशुद्ध प्राणोंके द्वारा जीता है सो वो संसारी है, और जो शुद्ध प्राणोंसे जीता है वह सिद्ध जीव है। इसकारण सिद्धोंके कथंचित् प्रकार प्राण हैं भी और नहीं भी हैं। जो निश्चय प्राण हैं वे तो पाये जाते हैं और जो व्यवहार प्राण हैं वे नहीं हैं। फिर उन ही सिद्धोंके क्षीरनीरके समान देहसे संबंध भी नहीं है। किंचित् ऊन ( कम ) चरम (अंतके ) शरीरप्रमाण प्रदेशोंकी अवगाहना है । झानादि अनंतगुणसंयुक्त अपार महिमा लिये आत्मलीन अविनाशी स्वरूपसहित विराजमान हैं ॥ ॥३५ ।। व्यापाः इन्द्रियबलायुरुन्छ्वासलक्षणात्यकाः, २ भावप्राणस्य सत्तासुखबोधचैतन्यलक्षणस्य. ३ तेषां सिद्धानां. ४ तस्य शरीरस्य संपर्कः संयोगः तत्संपर्कहेतुभूताच ते कषाययोगाश्च तेषों विप्रयोगों विनाशस्तस्पात.. बतिक्षयेन त्यक्तदेहाः. ६ तेषां सिद्धानां यहिया तन्महिमा, ७ प्रकाशयन्ति ।' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002941
Book TitlePanchastikaya
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1969
Total Pages294
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size18 MB
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