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________________ श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । अत्र जीवानां स्वाभाविकं प्रमाणं मुक्तामुक्तविभागथोक्तः;अगुरुलगा अनंता तेहिं अनंतेहिं परिणदा सव्वे । देसेहिं असंखादा सियलोंगं सव्वमावण्णा ॥ ३१॥ अगुरुलघुका अनंतास्तैरनंतैः परिणताः सर्वे । देशैरसंख्याताः स्याल्लोकं सर्वमापन्नाः ||३१|| Jain Education International भेदेन बलेन्द्रियायुरुच्छ्वासलक्षणा इति । अत्र सूत्रे मनोवाक्कायनिरोधेन पंचेंद्रियविषयव्यावर्तनबलेन च शुद्ध चैतन्यादिशुद्धप्राणसहितः शुद्धजीवास्तिकाय एवोपादेयरूपेण ध्यातव्य ति भावार्थः ॥ ३० ॥ अथागुरुलघुत्वमसंख्यातप्रदेशत्वं व्यापकत्वाव्यापकत्वं मुक्तामुक्तत्वं च प्रतिपादयति, — अगुरुलहुगाणंता प्रत्येकं षट्स्थानपतितहानिवृद्धिभिरनंताविभागपरिच्छेदैः सहिता अगुरुलघवो गुणा अनंता भवन्ति । तेहिं अणतेहिं परिणदा सच्चे तैः पूर्वोक्तगुणैरनंतैः परिणताः सर्वे । सर्वे के । जीवा इति संबंध: । देसेहिं असंखादा लोकाकाशप्रमिताखण्डप्रदेशैः सहितत्वादसंख्येयप्रदेशाः । सियलोगं सव्वमावण्णा स्यात्कथं चिल्लोकपूरणाच 1 सोच्छ्वास प्राण है । भावार्थ — इन्द्रिय बल आयु श्वासोच्छ्वास इन चारों ही प्राणोंमें जो चैतन्यरूप परिणति हैं वे तो भावप्राण हैं और इनकी ही जो पुद्गलस्वरूप परिणति हैं वे द्रव्यप्राण कहलाते हैं । ये दोनों जातिके प्राण संसारी जीवके सदा अखंडित संतान द्वारा प्रवर्त्तते हैं । इन्ही प्राणोंसे संसार में जीवित कहलाता है । और मोक्षावस्था में केवल शुद्धचैतन्यादि गुणरूप भावप्राणोंसे जीवित है, इस कारण वह शुद्धजीव है ॥ ३० ॥ आगे जीवोंका स्वाभाविक प्रदेशोंकी अपेक्षा प्रमाण कहते हैं और मुक्त संसारी जीवका भेद कहते हैं; - [ अगुरुलघुकाः ] समय समयमें षट्गुणी हानिवृद्धि लिये अगुरुलघु गुण [ अनंता: ] अनंत हैं, वे अगुरुलघु गुण आत्माके स्वरूपमें थिरता के कारण अगुरुलघु स्वभाव हैं, उसके अविभागी अंश अति सूक्ष्म हैं । आगमकथित ही प्रमाण कहे जाते हैं । [ तैः अनंतैः ] उन अनंत अगुरुलघु गुणोंके द्वारा [ सर्वे ] जितने समस्त जीव हैं उतने सब ही [ परिणताः ] परणत हैं अर्थात् ऐसा कोई भी जीव नहीं है जो अनंत अगुरुलघुगुण रहित हो, किन्तु सबमें पाये जाते हैं । और वे सब ही जीव [ देशैः ] प्रदेशों के द्वारा [ असंख्याताः ] लोकप्रमाण असंख्यातप्रदेशी हैं । अर्थात् - एक एक जीबके असंख्यात असंख्यात प्रदेश हैं । उन जीवों में से कितने ही जीव [ स्यात् ] किस ही एक प्रकारसे दंडकपाटादि अवस्थाओंमें [ सर्व लोकं ] सीनसै तेतालीस रज्जुप्रमाण घनाकार रूप समस्त लोकके प्रमाणको [ आपन्ना: ] I -- For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002941
Book TitlePanchastikaya
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1969
Total Pages294
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size18 MB
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