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________________ भद्रबाहुसंहिता अर्थात्-जे कार्यो सम्यग् रीते कथेला आ निमित्तशास्त्र वडे साधी शकाय छे ते कार्यो नथी वेदना ज्ञानथी के नथी अंगोना ज्ञानथी, तेम ज नथी बीजी बीजी विद्याओना ज्ञानथी साधी शकाय तेम छे. अतीत, वर्तमान अने भविष्यनुं सर्व काई जेनाथी जाणी शकाय छे ते आ ज ज्ञान छे, बीजूं कोई ज्ञान आq मनातुं नथी. आ निमित्त शास्त्र कई रीते मनुष्य समाजने उपकारक थाय छे, अने कई रीते कार्य साधक बने छे तेनो खुलासो प्रस्तुत ग्रन्थकारना वक्तव्यमाथी आ प्रमाणे मळे छे:-मनुष्य जीवनना सुख अने संरक्षणनो मुख्य आधार प्रकृतिनी सुस्थिति अने सानुकूल अवस्था उपर रहेलो छे. प्रकृतिना तत्वोमां जो विकृत अवस्था अने प्रतिकूळ भाव उत्पन्न थाय तो तेथी मनुष्य जीवनना नित्य-नैमित्तिक व्यवहारमा अने कार्यमा बाधा उत्पन्न थाय अने तेथी मनुष्यना सुख अने संरक्षणमां भयजनक अने हानिकर परिस्थिति उभी थाय. नीचे आपेला श्लोक उपरथी ग्रन्थकारे प्रदर्शित करेलो आ भाव स्पष्टपणे समजाय तेवो छे. प्रकृतेर्योऽन्यथाभावो विकारः सर्व उच्यते । एवं विकारे विज्ञेयं भयं तत् प्रकृतेः सदा ॥ २.३ अर्थात्-प्रकृतिमा जे अन्यथाभाव (फेरफार) उत्पन्न थाय छे ते सर्व विकार कहेपाय छे अने ए रीते थता प्रकृतिना विकारथी मनुष्य माटे सदा भय (भयजनक परिस्थिति) उपस्थित थाय छे. अहिं प्रकृति एटले जे पृथ्वी उपर मनुष्यनो निवास छे तेनी साथे संबन्ध धरावता जल अने वायु आदि पार्थिव तत्वोनी गति-स्थिति तेमज आकाशमां दृष्टिगोचर थता चन्द्र, सूर्यादि ग्रह-नक्षत्र-तारा आदि आन्तरिक्ष पदार्थोनी गति-स्थिति समजवानी छे. पृथ्वी अने आकाशगत ए पदार्थोनी गति-स्थिति सदा एक सरखी नथी होती-नथी रहेती. एमां अनेक ज्ञात अने अज्ञात कारणोथी, समये समये अने स्थळे स्थळे, साधारण अने असाधारण परिमाणमां, अनेक प्रकारनां परिवर्तनो थयां करे छे. मनुष्यने, पोताना जीवनना घटक एवा आहार-विहारादि व्यवहारनां सर्वे आवश्यक अने उपकारक साधनो, प्रकृतिनी सामान्य सुस्थितिवाळी एटले के साम्य अवस्थामांथी मळतां होय छे. प्रकृतिनी ए साम्य अवस्थामां ज्यारे कोई कारणथी असामान्य अर्थात् विषम एवी परिस्थिति उत्पन्न थाय छे त्यारे मनुष्योपयोगी ए साधनो पण विकृत स्वरूप प्राप्त करी मनुष्य जीवनने विषम परिस्थितिमां मूकी दे छे अने मनुष्यने अभीष्ट मानसिक सुख, शारीरिक स्वास्थ्य अने प्राणसंरक्षण आदि जीवनतत्त्वने बाधक के घातक रूपे निवडे छे. प्रकृतिना उक्त तत्त्वोनी साम्य मनाती गतिस्थितिमां, जे निमित्त अथवा कारणथी तेवी असाम्य लागती काईक गति-स्थिति ज्यारे उत्पन्न थवानी होय छे त्यारे ते निमित्तनां ज्ञापक अने सूचक एवां वेटलांक दृष्ट-अष्ट पूर्वचिह्नो पण उद्भूत थाय छे. जेनाथी एवां चिह्वोर्नु स्वरूपपरिज्ञान आपणने प्राप्त थाय तेनुं ज नाम निमित्त ज्ञान के निमित्त शास्त्र. प्राकृतिक तत्त्वोमांथतां परिवर्तनोनां निमित्तो अने तेनां पूर्वचिहोना ज्ञानथी, मनुष्य पोताना जीवन साथे संबन्ध धरावता शुभ-अशुभ अर्थात् इष्ट-अनिष्ट कार्यनी आगाही मेळवी शके छे अने तेना आधारे पोताना जीवितना सुख अने संरक्षण विषे योग्य विचार के उपाय करी शके छे. अने ए रीते आ निमित्त शास्त्र मनुष्य जीवनने नितान्त उपकारक थाय छे. आ विचाररहस्यने प्रकट पणे पुष्ट करनार, प्रस्तुत ग्रन्थमां सूचित एक उल्लेख द्वारा आ वस्तु वधारे स्पष्ट रीते कही शकाय तेम छे. ९ मा 'वातलक्षण' नामना अध्यायमां वायुनी गति-स्थिति आदिनां लक्षणो द्वारा सूचवा तां निमित्तोर्नु = कारणोनुं वर्णन करती वखते वायुलक्षणज्ञान केवी रीते मनुप्यने उपकारक थाय छे तेनो संबन्ध सूचवतो नीचे प्रमाणेनो एक श्लोक आप्यो छेआहारस्थितयः सर्वे जङ्गमाः स्थावरास्तस्था। जलसंभवं च सर्व तस्यापि जननोऽनिलः ॥९, ३७. अथात् -जंगम अने स्थावर सर्व जीवोनी स्थितिको आधार आहार उपर रहेलो छे. आहारनी उत्पत्ति जलने लईने थाय छे. अने जलनो उत्पादक वायु होय छे. एटले के वायुनां लक्षणोना ज्ञानथी मनुष्य पोताना जीवि. तमा मुख्य आधारभूत आहार पदार्थनी प्राप्ति आदि माटे योग्य उपाय अने योजना करी शके छे. ग्रन्थकारनुं आ कथन सर्वथा वास्तविक अने सर्वगम्य जेवु छे. आपणा आ विशाळ भारतवर्षमा प्रतिवर्ष अनावृष्टि के भतिवृष्टिने लीधे, कोक ने कोक प्रदेशमां दुर्भिक्ष जेवी स्थिति उत्पन्न थयां ज करे छे, अने तेना लीधे ते ते प्रदेशना अनेक मनुष्योना सुखनो नाश थई केटलाएना प्राणोनो पण घणीवार नाश थयां करे छे. परंतु अ प्रमाणे, मनुष्योने वायु-आदिनां लक्षणोना ज्ञानद्वारा, थनार अतिवृष्टि के अनावृष्टिनुं जो आगळथी ज सूचन थई जाय तो, तेनाथी थता अनिष्टोथी बचवा तेओ योग्य उपाय योजी शके. वर्तमान वर्षमा ज गुजरात, कच्छ, सौराष्ट्र आदि प्रदेशोमा जे भीषण दुर्भिक्षनी परिस्थिति उभी थई छे, तेनुं जो आपणने प्रस्तुत निमित्तशास्त्रमा जणाव्या प्रमाणे, वर्षाकाळना प्रारंभमां थता वातलक्षणना आधारे, भा वे अनावृष्टिन सूचन थयुं होत तो, अत्यारे जे घास-चाराना अभावे हजारो पशुओना प्राण नष्ट थई रहा छ, तेना रक्षणनो कोई उपाय, प्रथमथी ज योजी काढवा माटे राज्ये अने प्रजावर्गे प्रयत्न कर्यो होत. आ जातना शास्त्रोक्त वर्षाविज्ञानना अभावे, वर्षाविहीन जेवो आखो य वर्षाकाळ व्यतीत थवा सुधीमा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002917
Book TitleBhadrabahu Samhita
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorA S Gopani
PublisherBharatiya Vidya Bhavan
Publication Year1949
Total Pages150
LanguageHindi, English
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size13 MB
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