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9 (२५) वज्र या वर्ण्य अथवा सावद्य-प्राणिवध वज्र के समान बड़ा कठोर है। प्राणी का कोमल हृदय 5 इसे सह नहीं सकता, इसलिए इसे 'वज्र' कहा है। इसका एक संस्कृत रूप वर्ण्य भी होता है, जिसका अर्थ
है वर्जनीय। 卐 (२६) परितापास्रव-परितापकारी। मृषावाद आदि अन्य आसव इसी आस्रव से उत्पन्न होते हैं। 2 अथवा यह आस्रव दूसरे मृषावाद आदि आस्रवों की अपेक्षा अधिक परिताप (सन्ताप) देने वाला होने से 3 इसे परितापास्रव कहा है।
(२७) विनाश-प्राणियों का इसमें द्रव्य और भाव दोनों ही तरह से नाश होता है, इसलिए इसे ॐ विनाश कहा है। द्रव्य से विनाश तो प्राणों या शरीरादि का होता है, भाव से मरते समय मरने वाले जीव 9 में प्रायः आर्तध्यान एवं मारने वाले के प्रति रौद्रध्यान पैदा होता है, साथ ही मारने वाले के मन में भी
क्रूर भाव पैदा होते हैं, इसलिए द्रव्य और भाव से स्व-पर विनाश का कारण होने से प्राणिवध को + 'विनाश' कहा है। E (२८) निर्यापना अथवा नियातना-जीवनयापन से रहित कर देना निर्यापना है। अथवा जीवनयापन ॐ का अर्थ सुख से चल रही जीविका से रहित कर देना, किसी की जीविका को उखाड़ देना भी हो सकता + है। अथवा इसका एकरूप नियातना होता है जिसका अर्थ होता है, जिसमें नितरां-निरन्तर यातना ही 3 यातना हो। हिंसा के कारण हिंसक प्राणी को सतत यातना का ही अनुभव होता है।
(२९) लोपना-जिसमें प्राणों का लोप (खात्मा) कर दिया जाता हो, वह लोपना है। अथवा प्राणों की | लुम्पना-लूट करने वाली होने से यह लोपना है।
(३०) विराधना-आत्मा के ज्ञानादि गुणों की इसमें विराधना होती है, क्षति होती है, इसलिए विराधना भी आत्म-भाव की हिंसा का ही काम करती है। वास्तव में तो भावहिंसा ही पापकर्म के बन्ध की कारण है, द्रव्यहिंसा तो प्राणघात आदि की क्रियामात्र है।
तंदुलमत्स्य जीवों की वधरूप क्रिया (द्रव्यहिंसा) बिल्कुल नहीं करता, लेकिन उसके परिणाम जीवों 卐 को निगलने व मारने के होने से वह मरकर अपने उन हिंसा रूप परिणामों (भावहिंसा) के कारण सातवें नरक का मेहमान बनता है। इसलिए भावहिंसा ही पापकर्म के बन्ध की कारण है।
तीस नाम-इस प्रकार प्राणवध के पर्यायवाची ‘गुणनिष्पन्न' ३० नाम प्रस्तुत सूत्र में बताये हैं।
3. There are thirty synonyms of violence in the form of causing hurt 4 to life-force and they depict the bitter consequences of it and of the
mental state. (The word 'gauna' used in the script indicates that all these synonymous are secondary and the primary title is violence or hurting the life-force.)
(1) Hurting the Life-force-To cause hurt to the life-force of any person in a selfish state or in delusion is violence. The life-forces are ten in the form of five sense organs-mind, speech, physical body, breathing
श्रु.१, प्रथम अध्ययन : हिंसा आश्रय
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Sh.1, First Chapter: Violence Aasrava
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