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555555555555555555555555555555555555 ॐ (१३) मृत्यु-किसी को जान से मार डालना, जीवन से रहित कर देना या परलोक पहुँचा देना मृत्यु है।
(१४) असंयम-पृथ्वीकाय, अप्काय आदि छहों काय जीवों के साथ यतना, सावधानी या विवेकपूर्वक व्यवहार न करने से या स्थावर (एकेन्द्रिय) जीवों के शरीर (मिट्टी, पानी, हवा, अग्नि
और वनस्पति) का अनावश्यक, निरर्थक एवं अनाप-शनाप उपयोग करने से प्राणिवध रूप असंयम ॐ होता है। असंयम ही हिंसा का जनक है।
(१५) कटकमर्दन-सेना लेकर आक्रमण करके जीवों का मर्दन करना, कुचल डालना या रौं डालना अथवा मसल डालना कटकमर्दन है। अथवा युद्ध में झौंककर या लड़ाकर उनको चकनाचूर करा ॐ देना भी कटकमर्दन कहलाता है।
(१६) व्युपरमण-शरीर को प्राणों से भिन्न करना-रहित करना व्युपरमण है। म (१७) परभव संक्रमकारक-किसी प्राणी को इहभवरूपी घर को छुड़ाकर परभवरूपी नवगृह में जाने + से मोह-ममत्ववश अत्यन्त दुःख होता है। इसलिए अत्यन्त दुःखकारक होने से यह दूसरे जन्म में पहुँचाने वाला परभव संक्रमणकारक कहलाता है।
(१८) दुर्गतिप्रपात-नरक तिर्यंचरूप दुष्ट गति के गड्ढे में गिराने वाला होने से प्राणवध को दुर्गतिप्रपात कहा गया है।
(१९) पापकोप-पाप को प्रकुपित करने या उत्तेजित करने वाला पापकोप है। हिंसा भी पाप को म उत्तेजित करने-बढ़ावा देने वाली होती है।
(२०) पापलोभ या पापल-जो प्राणी को पाप में लुब्ध कर देता है, पाप में रचा-पचा देता है, वह पापलोभ है। अथवा पापरूप उत्कट लोभ का कारण होने से भी प्राणिवध का एक नाम ‘पापलोभ' है। इसका पाठान्तर 'पापलः' भी मिलता है, जिसका अर्थ है-पापों को लाने वाला।
(२१) छविच्छेद-छवि यानी शरीर के किसी भी हिस्से (नाक, कान आदि) का छेदन करना-काटना 5 छविच्छेद है।
(२२) जीवितान्तकरण-जीवन का अन्त कर देना भी प्राणवध का एक अंग है। जीवन सबको ॐ अत्यन्त प्यारा होता है, किन्तु जब उसको अपने जीवन से कोई अलग करता है, तो उसे अत्यन्त दुःख 卐 होता है, यही हिंसा है।
(२३) भयंकर-भयंकर का अर्थ है-भय पैदा करने वाला। वध के नाम से ही प्राणी डर के मारे ॐ काँप उठता है। जिसका वध किया जाता है, उसे तो भय लगता ही है, साथ ही वध करने वाले के मन ऊ में भी यह भय बैठ जाता है कि कहीं यह सामना करके मझे मार न बैठे। इस तरह प्राणिवध चारों ओर भय ही भय पैदा करने वाला है।
(२४) ऋणकर-प्राणिवध पापरूप ऋण को चुकाते समय-पाप का फल भोगते समय जीव को बड़ा फ़ ही दुःखी होना पड़ता है। परलोक में भी इस कठोर ऋण के कारण नरक आदि में असह्य यातनाएँ
और तिर्यंचगति में भी भूख, प्यास, सर्दी, गर्मी आदि के नाना दुःख भोगने पड़ते हैं, जो उस ऋण के 卐 कुफल हैं।
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श्री प्रश्नव्याकरण सूत्र
(10)
Shri Prashna Vyakaran Sutra
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