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ॐ बिना किसी का सहारा लिए तपश्चर्या करना, (५) आचार्यादि से सूत्र और उसके अर्थ आदि को ग्रहण ! + करना, (६) शरीर का श्रृंगार न करना, (७) अपनी तपश्चर्या या उग्र क्रिया को प्रकाशित न करना,
(८) निर्लोभ होना, (९) कष्ट-सहिष्णु होना-परीषहों को समभाव से सहन करना, (१०) आर्जव-सरलता-निष्कपटभाव होना, (११) सत्य होना, (१२) दृष्टि सम्यक् रखना, (१३) समाधि-चित्त को समाहित रखना, (१४) पाँच प्रकार के आचार का पालन करना, (१५) विनीत होकर रहना, (१६) धैर्यवान् होना-धर्मपालन में दीनता का भाव न उत्पन्न होने देना, (१७) संवेगयुक्त रहना, (१८) प्रणिधि अर्थात् मायाचार न करना, (१९) समीचीन आचार-व्यवहार, (२०) संवर-ऐसा
आचरण करना जिससे कर्मों का आस्रव रुक जाये, (२१) आत्मदोषोपसंहार-अपने में उत्पन्न होने वाले । 卐 दोषों का निरोध करना, (२२) कामभोगों से विरत रहना, (२३) मूलगुणों सम्बन्धी प्रत्याख्यान करना, ! - (२४) उत्तरगुणों से सम्बन्धित प्रत्याख्यान करना-विविध प्रकार के नियमों को अंगीकार करना, (२५), ॐ व्युत्सर्ग-शरीर, उपधि तथा कषायादि का उत्सर्ग करना-त्यागना, (२६) प्रमाद का परिहार करना, ५ + (२७) प्रतिक्षण समाचारी का पालन करना, (२८) ध्यानरूप संवर की साधना करना, ॐ (२९) मारणान्तिक कष्ट के अवसर पर भी चित्त में क्षोभ न होना, (३०) विषयासक्ति से बचे रहना,
(३१) अंगीकृत प्रायश्चित्त का निर्वाह करना या दोष होने पर प्रायश्चित्त लेना, और (३२) जीवन की - अन्तिम घड़ियों के समय संलेखना करके अन्तिम आराधना करना।
३३. आशातनायें निम्नलिखित हैं-(१) शैक्ष-नवदीक्षित या अल्प दीक्षापर्याय वाले साधु का रानिक-अधिक दीक्षापर्याय वाले साधु के बराबर चलना। (२) शैक्ष का रानिक साधु के आगे-आगे + गमन करना। (३) शैक्ष का रालिक के अति निकट चलना। (४) शैक्ष का रानिक के आगे खड़ा होना।
(५) शैक्ष का रात्निक के साथ बराबरी से खड़ा होना। (६) शैक्ष का रालिक के अति निकट खड़ा होना। ऊ (७) शैक्ष का रात्निक के साथ बराबरी से बैठना। (८) शैक्ष का रात्निक के आगे बैठना। (९) शैक्ष का
रात्निक के अति समीप बैठना। (१०) शैक्ष का रानिक के साथ स्थंडिलभूमि जाना और रानिक से पहले ही शौच-शुद्धि कर लेना। (११) शैक्ष का रात्निक के साथ विचारभूमि या विहारभूमि जाना और रानिक से पहले ही आलोचना कर लेना। (१२) कोई व्यक्ति दर्शनादि के लिए आया हो और रालिक के बात करने से पहले ही शैक्ष द्वारा बात करना। (१३) रात्रि में रालिक के पुकारने पर जागता हुआ भी
न बोले। (१४) आहारादि लाकर पहले अन्य साधु के समक्ष आलोचना करे, बाद में रात्निक के समक्ष। क (१५) आहारादि लाकर पहले अन्य साध को और बाद में रात्निक साध को दि # आहारादि के लिए पहले साधुओं को निमंत्रित करना और बाद में रत्नाधिक को। (१७) रत्नाधिक से के पूछे बिना अन्य साधुओं को आहारादि देना। (१८) रानिक साधु के साथ आहार करते समय मनोज्ञ,5
सरस वस्तु अधिक एवं जल्दी-जल्दी खाये। (१९) रत्नाधिक के पुकारने पर उनकी बात अनसुनी ॐ करना। (२०) रत्नाधिक के कुछ कहने पर अपने स्थान पर बैठे-बैठे सुनना और उत्तर देना। (२१)
रत्नाधिक के कुछ कहने पर क्या कहा?' इस प्रकार पूछना। (२२) रत्नाधिक के प्रति 'तू, तुम' ऐसे तुच्छतापूर्ण शब्दों का व्यवहार करना। (२३) रत्नाधिक के प्रति कठोर शब्दों का प्रयोग करे,
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श्री प्रश्नव्याकरण सूत्र
1384)
Shri Prashna Vyakaran Sutra
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