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________________ ) )) )) ) ) )) ) ) )) ) )) ) )) ) ) 5555555555555555555555555555555555558 ॐ शुद्ध परिणामों को विपरीत रूप में परिणत करके उसका अपकार करना, (९) जिनेन्द्र भगवान की है + निन्दा करना, (१०) आचार्य-उपाध्याय की निन्दा करना, (११) ज्ञानदान आदि से उपकारक आचार्य : ॐ आदि का उपकार न मानना एवं उनका यथोचित सम्मान न करना, (१२) पुनः-पुनः राजा के प्रयाण के 9 म दिन आदि का कथन करना, (१३) वशीकरणादि का प्रयोग करना, (१४) परित्यक्त भोगों की कामना । करना, (१५) बहुश्रुत न होने पर भी अपने को बहुश्रुत कहना, (१६) तपस्वी न होकर भी अपने को तपस्वी के रूप में विख्यात करना, (१७) मनुष्य या अन्य जीवों को घर में बन्द करके आग लगाकर मार डालना, (१८) अपने पाप को पराये सिर मढ़ना, (१९) मायाजाल रचकर जनसाधारण को ठगना, (२०) अशुभ परिणामवश सत्य को भी सभा में बहुत लोगों के समक्ष-असत्य कहना, (२१) बारंबार 5 कलह-लड़ाई-झगड़ा करना, (२२) विश्वास में लेकर दूसरे का धन हड़प जाना, (२३) विश्वास उत्पन्न ॥ कर परकीय स्त्री को अपनी ओर आकृष्ट करना-लुभाना, (२४) कुमार-अविवाहित न होने पर भी अपने को कुमार कहना, (२५) अब्रह्मचारी होकर भी अपने को ब्रह्मचारी कहना, (२६) जिसकी , सहायता से वैभव प्राप्त किया उसी उपकारी के द्रव्य पर लोलुपता करना, (२७) जिसके निमित्त से % ख्याति अर्जित की उसी के काम में विघ्न डालना, (२८) राजा, सेनापति अथवा इसी प्रकार के किसी राष्ट्रपुरुष का वध करना, (२९) देवादि का साक्षात्कार न होने पर भी साक्षात्कार-दिखाई देने की बात # कहना, और (३०) देवों की अवज्ञा करते हुए स्वयं को देव कहना। इन कारणों से मोहनीयकर्म का बन्ध होता है। ३१. सिद्धादिगुण-सिद्ध भगवान में आदि से अर्थात् सिद्धावस्था के प्रथम समय से ही उत्पन्न होने वाले या विद्यमान रहने वाले गुण सिद्धादिगुण कहलाते हैं अथवा सिद्धों के आत्यन्तिक गुण। ये इकतीस हैं-(१-५) मतिज्ञानावरणीय आदि पाँच प्रकार के ज्ञानावरणीय कर्म का क्षय, (६-१४) नौ प्रकार के दर्शनावरण का क्षय, (१५-१६) सातावेदनीय-असातावेदनीय का क्षय, (१७) दर्शनमोहनीय का क्षय, (१८) चारित्रमोहनीय का क्षय, (१९-२२) चार प्रकार के आयुष्यकर्म का क्षय, (२३-२४) दो प्रकार के गोत्रकर्म का क्षय, (२५-२६) शुभनामकर्म और अशुभ नामकर्म का क्षय, (२७-३१) पाँच प्रकार के अन्तराय कर्म का क्षय। इस प्रकार ८ कर्मों की ३१ प्राकृतियों के क्षय रूप, गुण सिद्ध को प्रथम समय में ही प्राप्त हो जाते हैं। ____ अथवा सिद्धों के इकतीस गुण इस प्रकार भी होते हैं-पाँच संस्थानों, पाँच वर्णों, पाँच रसों, दो गन्धों, आठ स्पर्शों और तीन वेदों (स्त्रीवेद-पुरुषवेद-नपुंसकवेद) से रहित होने के कारण २८ गुण तथा अकायता, असंगता और अरूपित्व, ये तीन गुण सम्मिलित कर देने पर सब ३१ गुण होते हैं। ३२. योगसंग्रह-मन, वचन और काय की प्रशस्त प्रवृत्तियों का संग्रह योगसंग्रह कहलाता है। यह बत्तीस प्रकार का है-(१) आलोचना-आचार्यादि के समक्ष शिष्य द्वारा अपने दोष को यथार्थ रूप से भली भांति यथा तथ्य रूप में प्रकट करना, (२) निरपलाप-शिष्य द्वारा प्रकट किये हुए दोषों को आचार्यादि किसी अन्य के समक्ष प्रकट न करे, (३) आपत्ति आ पड़ने पर भी धर्म में दृढ़ता रखना, (४) + )) ) )) ) नागनानानानागाना )) ) )) ) )) ) ) श्रु.२, पंचम अध्ययन : परिग्रहत्याग संवर (383) Sh.2, Fifth Chapter : Discar... Samvar 卐 15555555555555555555555555555558 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002907
Book TitleAgam 10 Ang 10 Prashna Vyakaran Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Varunmuni, Sanjay Surana
PublisherPadma Prakashan
Publication Year2008
Total Pages576
LanguageHindi, English
ClassificationBook_Devnagari, Book_English, Agam, Canon, Conduct, & agam_prashnavyakaran
File Size19 MB
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