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5 चुभन, (१८) जल्ल-मल को सहन करना, (१९) सत्कार - पुरस्कार - आदर होने पर अहंकार और अनादर की अवस्था में विषाद होना, (२२) प्रज्ञा - विशिष्ट बुद्धि का अभिमान, (२१) अज्ञान - विशिष्ट ज्ञान के अभाव में खेद का अनुभव, और (२२) अदर्शन। इन बाईस परीषहों पर विजय प्राप्त करने 5 वाला संयमी विशिष्ट निर्जरा का भागी होता है।
२३. सूत्रकृतांग - अध्ययन - प्रथम श्रुतस्कन्ध के पूर्वलिखित सोलह अध्ययन और द्वितीय श्रुतस्कन्ध के सात अध्ययन मिलकर तेईस होते हैं । द्वितीय श्रुतस्कन्ध के सात अध्ययन ये हैं- (१) पुण्डरीक, (२) क्रियास्थान, (३) आहारपरिज्ञा, (४) प्रत्याख्यानक्रिया, (५) अनगारश्रुत, (६) आर्द्रकुमार, और (७) नालन्दा ।
२४. चार निकाय के देवों के चौबीस भेद हैं- १० भवनवासी, ८ वाणव्यन्तर, ५ ज्योतिष और सामान्यतः १ वैमानिक । मतान्तर से मूल पाठ में आये 'देव' शब्द से देवाधिदेव अर्थात् तीर्थंकर समझना चाहिए, जिनकी संख्या चौबीस प्रसिद्ध है।
२५. भावना - पाँच महाव्रतों की पच्चीस भावनायें होती हैं।
२६. उद्देशक- दशाश्रुतस्कन्ध के १०, बृहत्कल्प के ६ और व्यवहारसूत्र के १० उद्देशक मिलकर छब्बीस उद्देशक हैं।
२७. साधु के मूल गुण सत्ताईस हैं - ५ महाव्रत, ५ इन्द्रियों का निग्रह, ४ क्रोधादि कषायों का त्याग, भावसत्य, करणसत्य, योगसत्य, क्षमा, विरागता, मन का, वचन का और काय का निरोध, ज्ञानसम्पन्नता, दर्शनसम्पन्नता, चारित्रसम्पन्नता, वेदनादि सहन और मारणान्तिक उपसर्ग का सहन ।
२८. प्रकल्प - आचार प्रकल्प २८ प्रकार का होता है। यहाँ आचार का अर्थ है - आचारांगसूत्र के दोनों श्रुतस्कन्धों के अध्ययन, जिनकी संख्या पच्चीस है और प्रकल्प का अर्थ है - निशीथसूत्र के तीन अध्ययन-उद्घातिक, अनुद्घातिक और आरोपणा । ये सब मिलकर २८ हैं ।
२९. पापश्रुतस्कन्ध के २९ भेद इस प्रकार हैं- (१) भौम, (२) उत्पात, (३) स्वप्न, (४) अन्तरिक्ष, (५) अंग, (६) स्वर, (७) लक्षण, (८) व्यंजन। इन आठ प्रकार के निमित्तशास्त्रों के सूत्र, वृत्ति और वार्त्तिक के भेद से २४ भेद हो जाते हैं। इनमें विकथानुयोग, विद्यानुयोग, मंत्रानुयोग, योगानुयोग और अन्यतीर्थिक प्रवृत्तानुयोग- इन पाँच को सम्मिलित करने पर पापश्रुत के उनतीस भेद होते हैं । मतान्तर से अन्तिम पाँच पापश्रुतों के स्थान पर गन्धर्व, नाट्य, वास्तु, चिकित्सा और धनुर्वेद का उल्लेख भी मिलता है। ३०. मोहनीय-अर्थात् मोहनीयकर्म के बन्धन के तीस स्थान- कारण इस प्रकार हैं- (१) जल में डुबाकर सजीवों की घात करना, (२) हाथ आदि से प्राणियों के मुख, नाक आदि बन्द करके मारना, (३) गीले चमड़े की पट्टी कसकर मस्तक पर बाँधकर मारना, (४) मस्तक पर मुद्गर आदि का प्रहार करके मारना, (५) श्रेष्ठ पुरुष की हत्या करना, (६) शक्ति होने पर भी दुष्ट परिणाम के कारण रोगी की
सेवा न करना, (७) तपस्वी साधक को बलात् धर्मभ्रष्ट करना, (८) अन्य के सम्यग्दर्शनादि मोक्षमार्ग रूप
श्री प्रश्नव्याकरण सूत्र
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