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5555555555555555555555555555555555 ॐ उद्दण्डतापूर्वक बोले, अधिक बोले। (२४) 'जी हाँ' आदि शब्दों द्वारा रात्निक की धर्मकथा का अनुमोदन के + न करना। (२५) धर्मकथा के समय रात्लिक को टोकना, 'आपको स्मरण नहीं' इस प्रकार के शब्द E कहना। (२६) धर्मकथा कहते समय रालिक को 'बस करो' इत्यादि कहकर कथा समाप्त करने के लिए ॐ कहना। (२७) धर्मकथा के अवसर पर परिषद् को भंग करने का प्रयत्न करे। (२८) रात्निक साधु
धर्मोपदेश कर रहे हों, सभा-श्रोतागण उठे न हों, तब दूसरी-तीसरी बार वही कथा कहना। (२९) फरानिक धर्मोपदेश कर रहे हों तब उनकी कथा का काट करना या बीच में स्वयं बोलने लगना। (३०) के करानिक साध की शय्या या आसन को पैर से ठकराना। (३१) रत्नाधिक के समान-बराबरी पर आसन
पर बैठना। (३२) रत्नाधिक के आसन से ऊँचे आसन पर बैठना। (३३) रत्नाधिक के कुछ कहने पर ॐ अपने आसन पर बैठे-बैठे ही उत्तर देना। इन आशातनाओं से मोक्षमार्ग की विराधना होती है, अतएव
ये वर्जनीय हैं। म सुरेन्द्र बत्तीस हैं-भवनपतियों के २०, वैमानिकों के १० तथा ज्योतिष्कों के २ चन्द्रमा और सूर्य।
(इनमें एक नरेन्द्र अर्थात् चक्रवर्ती को सम्मिलित कर देने से ३३ संख्या की पूर्ति हो जाती है।) म एक से प्रारम्भ करके क्रमशः एक-एक की वृद्धि करते हुये तीन अधिक तीस अर्थात् तेतीस संख्या
हो जाती है। इन सब संख्या वाले पदार्थों में तथा इसी प्रकार के अन्य पदार्थों में, जो जिनेश्वर द्वारा क प्ररूपित हैं तथा शाश्वत अवस्थित और सत्य हैं, किसी प्रकार की शंका या कांक्षा न करके हिंसा आदि E से निवृत्ति करनी चाहिए एवं विशिष्ट एकाग्रता धारण करनी चाहिए। इस प्रकार निदान, ऋद्धि आदि के ॐ गौरव-अभिमान से दूर रहकर, अलुब्ध-निर्लोभ होकर तथा मूढ़ता त्यागकर जो अपने मन, वचन और
काय को संयम में रखता हुआ भगवान महावीर के शासन पर श्रद्धा करता है, वही साधु परिग्रह त्यागी ॐ होता है, वही वास्तव में साधु है।
विवेचन : मूल पाठ में अन्तरंग परिग्रह के एक से तैंतीस बोल दिये गये हैं। इन्हें ही अन्तरंग परिग्रह मानकर ॐ प्रतिपादित किया गया है। इन तैंतीस बोलों में वीतराग देव ने जो भी हेय, समझकर विवेकपूर्वक-अमूढ़भाव से ॐ प्रवृत्ति करनी चाहिए। साधु को इन्द्रादि पद की या भविष्य के भोगादि की आकांक्षा से रहित, निरभिमान,
अलोलुप और संवरमय मन, वचन, काय वाला होना चाहिए। सोना-चांदी, मकान वस्त्र, पात्र आदि वस्तुयें ही ॐ परिग्रह नहीं हैं। अपितुः परिग्रह का एक अंतरंग रूप भी है जो बाह्य परिग्रह से कई गुना ज्यादा भंयकर है। ॐ देखा जाय तो वास्तव में परिग्रह का जन्मस्थान ही अन्तर्मन है। बाह्य परिग्रह तो अंतरंग परिग्रह का निमित्त रूप
होने के कारण ही परिग्रह कहलाता है। इसलिये शास्त्रकार ने मूल पाठ में आभ्यन्तर परिग्रह के एक से लेकर ॐ तैंतीस बोलों का वर्णन किया है और इन्हें ही अन्तरंग परिग्रह मानकर प्रतिपादित किया है। इन तैंतीस बोलों में 9 से हेय, ज्ञेय और उपादेय का विवेक करके साधक को विवेक पूर्वक अमूढ़भाव से प्रवृत्ति करनी चाहिये। साधु
को इन्द्रादि पद को या भविष्य के भोगादि की आकांक्षा से रहित निरभिमान, अलोलुप और संवरमय मन, वचन, काय वाला होना चाहिए।
154. Addressing his disciple Jambu Swami, Sudharma said o Jambu ! One who is devoid of the thought of attachment who has
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卐|श्रु.२, पंचम अध्ययन : परिग्रहत्याग संवर
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Sh.2, Fifth Chapter: Discar... Samvar
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