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म ब्रह्मचर्य-विघातक निमित्त CAUSES ADVERSELY AFFECTING CHASTITY
१४६. जेण सुद्धचरिएण भवइ सुबंभणो सुसमणो सुसाहू स इसी स मुणी स संजए स एव भिक्खू जो सुद्धं चरइ बंभचेरं। इमं च रइ-राग-दोस-मोह-पवडणकरं किंमज्झ-पमायदोसपासत्थ-सीलकरणं अभंगणाणि य तेल्लमज्जणाणि य अभिक्खणं कक्ख-सीस-कर-चरण-वयण-धोवण
संबाहण-गाय-कम्म-परिमद्दणाणुलेवण-चुण्णवास-धुवण-सरीर-परिमंडण-बाउसिय-हसियॐ भणिय-गट्ट-गीय-वाइय-णडणट्टग-जल्ल-मल्ल- पेच्छणवलंबगं जाणि य सिंगारागाराणि य
अण्णाणि य एवमाइयाणि तव-संजम-बंभचेर-घाओवघाइयाई अणुचरमाणेणं बंभचेरं वज्जियव्वाइं 5 सबकालं।
१४६. ब्रह्मचर्य महाव्रत का शुद्ध रूप से पालन करने से ही मनुष्य सुब्राह्मण-यथार्थ नाम वाला, ॐ सुश्रमण-सच्चा तपस्वी और सुसाधु-निर्वाण साधक वास्तविक साधु कहा जाता है। जो शुद्ध ब्रह्मचर्य का
आचरण करता है वही श्रेष्ठ ऋषि अर्थात् यथार्थ तत्त्वद्रष्टा है, वही मुनि-तत्त्व का वास्तविक मनन करने वाला है, वही संयत-संयमवान् है और वही सच्चा भिक्षु-निर्दोष भिक्षाजीवी है।
ब्रह्मचर्य का सेवन करने वाले पुरुष को इन आगे कहे जाने वाले व्यवहारों का त्याग करना चाहिए-रति-इन्द्रिय-विषयों के प्रति राग-परिवारिक जनों के प्रति स्नेह, द्वेष और मोह-मूढ़ता को 卐 बढ़ाने वाला, निस्सार प्रमाददोष तथा पार्श्वस्थ-शिथिलाचारी साधुओं का शील-आचार (जैसे निष्कारण
शय्यातरपिण्ड का उपभोग आदि) और घृतादि की मालिश करना, तेल लगाकर स्नान करना, बार-बार के बगल, सिर, हाथ, पैर और मुँह धोना, पैर आदि दबाना-पगचम्पी करना, परिमर्दन करना-समग्र
शरीर को मलना, विलेपन करना, चूर्णवास-सुगन्धित चूर्ण-पाउडर से शरीर को सुवासित करना,
अगर आदि की धूप देना-शरीर को धूपयुक्त करना, शरीर को मण्डित करना-सुशोभित करना, ॐ बाकुशिक कर्म करना-नखों, केशों एवं वस्त्रों को सँवारना, हँसी-ठट्ठा करना, विकारयुक्त भाषण
करना, नाट्य, अश्लील गीत, वादित्र, नटों, नृत्यकारकों और जल्लों-रस्से पर खेल दिखलाने वालों ॐ और मल्लों-कुश्तीबाजों का तमाशा देखना तथा इसी प्रकार की अन्य बातें जो श्रृंगार का आगार है हैं-श्रृंगार के स्थान हैं और जिनसे तपश्चर्या, संयम एवं ब्रह्मचर्य का उपघात-आंशिक विनाश या 5
घात-पूर्णतः विनाश होता है, ब्रह्मचर्य का आचरण करने वाले को सदैव के लिए त्याग देना चाहिए। म 146. The monk who faultlessly practices the major vow of
brahmcharya is one who is worthy of his name. He is a true practitioner
of austerities. He is a true monk. One who meticulously practices 4 brahmcharya, he is rishi. It means he has true perception of essentials.
He truly ponders over the essentials. He is the real follower of restraints. He is the real saint leading the life based on faultless offerings.
A practitioner of the vow of brahmcharya should detach himself from the activities mentioned ahead. He should avoid attachment towards
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श्रु.२, चतुर्थ अध्ययन : ब्रह्मचर्य संवर
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Sh.2, Fourth Chapter : Chastity Samvar
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