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The first type of Aasrava is in the form of causing violence to the life 卐 force. Now you listen its different names, the way it is committed by the ignoble, and its consequences.
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विवेचन : जिन भावों तथा जिन प्रवृत्तियों से आत्मा में पाप-कर्मरूप मलिन परमाणु प्रविष्ट होते हैं, उनको 'आस्रव' कहा गया है।
'आस्रव' को समझाने के लिए समुद्र में स्थित नौका का उदाहरण दिया जाता है। समुद्र स्थित नौका में यदि छिद्र हो जाते हैं, तो उन छिद्रों द्वारा नौका में धीरे-धीरे पानी प्रवेश करने लगता है, फलस्वरूप नौका समुद्र में डूबने की स्थिति में पहुँच जाती है।
इसी प्रकार संसाररूपी समुद्र में कर्मवर्गणारूप अथाह जल भरा है। आत्मारूपी नौका इस समुद्र में तैर रही है। जब आत्मा हिंसा, असत्य, चौर्य, अब्रह्मचर्य और परिग्रहरूप अशुभ भावों में प्रवृत्त होती है तो उसमें ऐसे छिद्र हो जाते हैं जिनसे अशुभ कर्मरूपी जल आत्मा में आने लगता है। कर्म जल से भारी होने पर आत्मारूपी नौका संसार-समुद्र में डूबने लगती है । आस्रव: छिद्र - नाव में छिद्र है तो उसमें से पानी आता है। उसी प्रकार हिंसा से आत्मा में अशाता वेदनीय कर्म आते हैं । इस प्रकार कर्म आने के छिद्र को आस्रव कहते हैं ।
अहिंसा, सत्य आदि संयमरूप शुभ भावों द्वारा उन छिद्रों को रोका जाता है । छिद्रों को रोक देना 'संवर' है। तत्त्वार्थसूत्र में आस्रव के पाँच भेद बताये हैं- (१) मिथ्यात्व, (२) अविरति, (३) प्रमाद, (४) कषाय, (५) योग। कुछ अन्य अपेक्षाओं 'आस्रव के बीस भेद भी गिनाये गये हैं ।
प्रस्तुत तीन गाथाओं में से प्रथम गाथा में शास्त्रकार ने बताया है कि अर्हत् तीर्थंकरों द्वारा इस शास्त्र में आस्रव और संवर की समीचीन, सर्वांग प्ररूपणा की जायेगी ।
जिसने कर्मबन्ध के कारण - 'आस्रवों' और कर्मनिरोध के कारण 'संवरों' को भलीभाँति जान लिया, उसने समग्र जिन प्रवचन के रहस्य को ही जान लिया है।
प्रत्येक संसारी जीव को आस्रव अनादिकाल से हो रहा है, संसारी जीवों ने आस्रव का कभी भी समग्र रूप में निरोध नहीं किया, किन्तु अनादि होने पर भी आस्रव अनन्तकालिक नहीं है। संवर के द्वारा उसका परिपूर्ण निरोध किया जा सकता है। अभव्य जीवों की अपेक्षा आस्रव अनादि - अनन्त है । वे कभी आस्रव का सम्पूर्ण निरोध नहीं कर पाते । किन्तु भव्य जीवों की अपेक्षा यह अनादि - सान्त है । आस्रव का निरोध करना संवर है। प्रस्तुत आगम में प्रथम आस्रव का स्वरूप बताकर फिर संवर का स्वरूप बताया जायेगा ।
तृतीय गाथा में हिंसा को 'जीव वध' नहीं कहकर 'प्राण वध' कहा है। टीकाकार ने इसका स्पष्टीकरण करते हुए लिखा है, 'जीव' का कभी वध नहीं होता, वह शाश्वत है, किन्तु शरीर के भीतर जो जीव की शक्तिरूप 'प्राण' है, उनका विनाश करने पर 'जीव' को घोर कष्ट व पीड़ा पहुँचती है। सभी शरीरधारी जीवों को अपने प्राण प्रिय हैं, प्राण नाश अप्रिय व दुःखदायी है। किसी जीव को कष्ट पहुँचाना हिंसा है। अतः यहाँ हिंसा के अर्थ
में 'प्राण वध' शब्द का सार्थक, सोद्देश्य प्रयोग किया गया है। जैसा कहा है
श्री प्रश्नव्याकरण सूत्र
दस प्रकार के प्राणों में से किसी भी प्राण का वियोजन (नाश) करना हिंसा है।
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और
प्राणाः दशैते भगवद्भिरुक्ता, तेषां वियोगीकरणं तं हिंसा ||
(2)
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Shri Prashna Vyakaran Sutra
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