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विणओ पउंजियव्बो, अण्णेसु य एवमाइसु बहुसु कारणसएसु विणओ पउंजियव्वो । विणओ वि तवो, तवो
विधम्मो तम्हा विणओ पउंजियव्वो गुरुसु साहुसु तवस्सीसु य ।
एवं विणएण भाविओ भवइ अंतरप्पा णिच्चं अहिगरण करण- कारावण- पावकम्मविरए दत्तमणुष्णाय उग्गहरुई ।
१३९. पाँचवीं भावना साधर्मिक - विनय
साधर्मिक साधुओं के प्रति विनय का प्रयोग करना
चाहिए। (रुग्णता आदि की स्थिति में) उपकार और तपस्या की पारणा- - पूर्ति में विनय का प्रयोग करना
चाहिए। वाचना अर्थात् सूत्रग्रहण में और गृहीत सूत्र की पुनरावृत्ति में विनय का प्रयोग करना चाहिए। भिक्षा में प्राप्त अन्न आदि अन्य साधुओं को देने में तथा उनसे ग्रहण करने में और विस्मृत अथवा शंकित सूत्रार्थ सम्बन्धी पृच्छा करने में विनय का प्रयोग करना चाहिए। उपाश्रय से बाहर निकलते और उसमें प्रवेश करते समय विनय का प्रयोग करना चाहिए। इनके अतिरिक्त इसी प्रकार के अन्य सैकड़ों कारणों में (कार्यों के प्रसंग में) विनय का प्रयोग करना चाहिए। क्योंकि विनय भी अपने आप में तप है और तप भी धर्म है। अतएव विनय का आचरण करना चाहिए। (विनय किनका करना चाहिए ?) गुरुजनों का, साधुओं का और (तेला आदि) तप करने वाले तपस्वियों का ।
इस प्रकार विनय से युक्त अन्तःकरण वाला साधु अधिकरण- पाप के करने और करवाने से विरत तथा दत्त-अनुज्ञात अवग्रह में रुचि वाला होता है ।
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139. Fifth sentiment is humility towards co-religionist. One should follow it. He should behave with humility while dealing with a monk who is sick or who is completing his long fasting. He should practice it when he is taking lesson in scriptures and when he is revising them. He should practice it in offering the collected food to other monks and in accepting food from others. He should practice it when he wants to ask about the lesson, which he has forgotten or about which he has any doubt regarding its real meaning. He should practice it while going out from the Upashraya and while coming in. He should practice it in other suchlike activities also because humility is also a form of austerity and austerity is also dharma. So one should practice humility. For whom one should have a sense of humility? He should exhibit it for his teachers, monks and those who are fasting for three days or more.
Thus a monk with his inner bent of mind practicing humility, remains detached in doing and getting done the sinful activities. He is interested in accepting only, that which is offered to him according to code.
श्रु.२, तृतीय अध्ययन : दत्तानुज्ञात संवर
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Sh. 2, Third Chapter: To Get... Samvar
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