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________________ 85555555555555555555555555555555555551 ) )) )) )) ) ) ) ) )) )) फ़ विवेचन (सूत्राङ्क १३५ से १३९ तक) : तृतीय व्रत की पाँच भावनाएँ कही गई हैं। प्रथम भावना में निर्दोष उपाश्रय को ग्रहण करने का विधान किया गया है। आधुनिक काल में उपाश्रय शब्द से एक विशिष्ट प्रकार के 卐 स्थान का बोध होता है और सर्वसाधारण में वही अर्थ अधिक प्रचलित है। किन्तु वस्तुतः जिस स्थान में साधुजन ठहर जाते हैं, वही स्थान उपाश्रय कहलाता है। यहाँ ऐसे कतिपय स्थानों का उल्लेख किया गया है जिनमें साधु ठहरते थे। वे स्थान हैं-देवकुल-देवालय, सभाभवन, प्याऊ, मठ, वृक्षमूल, बाग-बगीचे, गुफा, खान, गिरिगुहा, कारखाने, उद्यान, यानशाला (रथादि रखने के स्थान), कुप्यशाला-घर-गृहस्थी का सामान रखने की जगह, मण्डप, शून्यगृह, श्मशान, पर्वतगृह, दुकान आदि। इन या इस प्रकार से अन्य जिन स्थानों में साधु निवास करे वह निर्दोष होना चाहिए। साधु के निमित्त से , ॐ उसमें किसी प्रकार का झाड़ना-पौंछना, लीपना-पोतना आदि आरम्भ-समारम्भ न किया जाये। द्वितीय भावना का आशय यह है कि निर्दोष उपाश्रय की अनुमति प्राप्त हो जाने पर अपने संस्तारक (बिछौने) के लिये वहाँ रखे हुए सूखे घास, पवाल आदि की साधु को आवश्यकता हो तो उसके लिए पृथक् रूप से उसके स्वामी की अनज्ञा प्राप्त करनी चाहिए। ऐसा नहीं मानना चाहिए कि उपाश्रय की अनुमति ले लेने से ॐ उसके भीतर की वस्तुओं की भी अनुमति प्राप्त कर ली। जो भी वस्तु ग्रहण करनी हो वह निर्दोष और दत्त ही ! होनी चाहिए। तीसरी भावना शय्यापरिकर्मवर्जन है। इसका अभिप्राय है कि साध के निमित्त से पीठ, फलक आदि बनवाने ! के लिए वृक्षों का छेदन-भेदन नहीं होना चाहिए। उपाश्रय में ही शय्या की गवेषणा करनी चाहिए। वहाँ की भूमि ॐ विषम हो तो उसे समतल नहीं करनी चाहिए। वायु अधिक आये या कम आये, इसके लिए उत्कंठित होना नहीं चाहिए। उपाश्रय में डांस-मच्छर सतायें तो चित्त में क्षोभ उत्पन्न नहीं होने देना चाहिए-उस समय में समभाव रहना चाहिए। डांस-मच्छर भगाने के लिए आग या धूम का प्रयोग करना नहीं चाहिए आदि। ____ चौथी भावना का सम्बन्ध प्राप्त आहारादि के उपभोग के साथ है। साधु जब अन्य साधुओं के साथ आहार करने बैठे तो सरस आहार जल्दी-जल्दी न खाये, अन्य साधुओं को ठेस पहुंचे, इस प्रकार न खाये। साधारण ! अर्थात् अनेक साधुओं के लिए सम्मिलित भोजन का उपभोग समभावपूर्वक, अनासक्त रूप से करे। पाँचवीं भावना साधर्मिक विनय है। समान आचार-विचार वाले साधु साधर्मिक कहलाते हैं। बीमारी आदि की अवस्था में अन्य के द्वारा जो उपकार किया जाता है, वह उपकरण है। उपकरण एवं तपश्चर्या की पारणा ज के समय विनय का प्रयोग करना चाहिए, अर्थात् इच्छाकारादि देकर, जबर्दस्ती न करते हुए एकत्र या अनेकत्र ! गरु की आज्ञा से भोजन करना चाहिए। वाचना. परिवर्तन एवं पच्छा के समय विनय-प्रयोग का 3 वन्दनादि विधि करना। आहार के देते-लेते समय विनयप्रयोग का अर्थ है-गुरु की आज्ञा प्राप्त करके देना-लेना। उपाश्रय से बाहर निकलते और उपाश्रय में प्रवेश करते समय विनयप्रयोग का अर्थ आवश्यकी और नैषेधिकी करना आदि है। अभिप्राय यह है कि प्रत्येक क्रिया आगमादेश के अनुसार करना ही यहाँ विनयप्रयोग : कहा गया है। ) ) ) ) )) )) )) ) )) )) )) |श्री प्रश्नव्याकरण सूत्र ज (342) Shri Prashna Vyakaran Sutra 55555555555555555555555555555 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002907
Book TitleAgam 10 Ang 10 Prashna Vyakaran Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Varunmuni, Sanjay Surana
PublisherPadma Prakashan
Publication Year2008
Total Pages576
LanguageHindi, English
ClassificationBook_Devnagari, Book_English, Agam, Canon, Conduct, & agam_prashnavyakaran
File Size19 MB
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