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एवं साहारणपिंडपायलाभे समिइजोगेण भाविओ भवइ अंतरप्पा णिच्चं अहिगरण-करण-कारावण-पावकम्मविरए दत्तमणुण्णाय उग्गहरुई।
१३८. चौथी भावना अनुज्ञातभक्तादि है। वह इस प्रकार है-संघ के सब साधुओं के लिए सम्मिलित # आहार-पानी आदि मिलने पर साधु को सम्यक् प्रकार से-यतनापूर्वक खाना चाहिए। शाक और दाल 卐 ही अधिक नहीं खानी चाहिये। सरस-स्वादिष्ट भोजन अधिक (या शीघ्रतापूर्वक) नहीं खाना चाहिए
(क्योंकि ऐसा करने से अन्य साधुओं को अप्रीति उत्पन्न होती है और वह भोजन अदत्त हो जाता है) म तथा जल्दी-जल्दी कवल निगलते हुए भी नहीं खाना चाहिए। ग्रास को झटपट मुंह में नहीं डालना
चाहिये। चंचलतापूर्वक हाथ गर्दन आदि बहुत हिला डुलाकर नहीं खाना चाहिए और न विचारविहीन 卐 होकर खाना चाहिए। जो दूसरों को पीड़ाजनक हो और सावध पापयुक्त हो इस तरह नहीं खाना चाहिए।
साधु को इस रीति से भोजन करना चाहिए जिससे उसके तीसरे व्रत में बाधा उपस्थित न हो। यह अदत्तादानविरमणव्रत का सूक्ष्म-अत्यन्त रक्षा करने योग्य नियम है।
इस प्रकार सम्मिलित भोजन के लाभ में समिति के योग से भावित अन्तःकरण वाला साधु सदा दुर्गति हेतु पापकर्म से विरत होता है और दत्त एवं अनुज्ञात अवग्रह की रुचि वाला होता है। ___138. Fourth sentiment is regarding taking offered food and the like. It is like this : When food and water is procured collectively for all the monks, a monk should eat it with proper discrimination. He should not consume the sweat juicy rich food in greater quantity (or hurriedly as it may cause dejection in the mind of other monks as that food then becomes not offered). He should not take the morsels of food hurriedly swallowing them. He should not take his meal in a state of restlessness. He should not eat without proper care and in a way that may cause trouble to others. A monk should take his food in such a way that it may not cause any transgression in the practice of this third vow of nonstealing. This is the subtle principle of properly safeguarding the vow of avoiding stealing.
Thus a monk who maintains a state of equanimity in his mind while jointly having his food, is always away from such sinful acts that may lead to bad state of existence in next life. He has an inclination of taking only that, which is offered strictly according to the code. पाँचवी भावना-साधर्मिक-विनय FIFTH SENTIMENT : HUMILITY TOWARDS CO-RELIGIONIST
१३९. पंचमगं-साहम्मिए विणओ पउंजियव्वो, उवगरणपारणासु विणओ पउंजियचो, ॐ वायणपरियट्टणासु विणओ पउंजियब्बो, दाणगहणपुच्छणासु विणओ पउंजियव्यो, णिक्खमणपवेसणासु
|श्री प्रश्नव्याकरण सूत्र
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Shri Prashna Vyakaran Sutra
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