________________
2 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 -
卐
1
5 उपाश्रय के भीतर की घास आदि लेना हो तो उनके लिए पृथक् रूप से अनुज्ञा प्राप्त करनी चाहिए। ! उपाश्रय की अनुज्ञा प्राप्त कर लेने मात्र से उसमें रखी अन्य तृण आदि वस्तुओं के लेने की अनुज्ञा ले ली, ऐसा नहीं मानना चाहिए।
卐
卐
卐
卐
卐
卐
卐
*******************தத****ததததததததி
卐
卐
इस प्रकार अवग्रहसमिति के योग से भावित अन्तःकरण वाला साधु सदा दोषयुक्त आचरण के कारणभूत पापकर्म के करने और कराने से निवृत्त होता - बचता है और दत्त - अनुज्ञात अवग्रह की रुचि ! वाला होता है।
१३७. तइयं - पीढफलगसिज्जासंथरगट्टयाए रुक्खा ण छिंदियव्वा ण छेयणेण भेयणेण सेज्जा
5 कारियव्वा, जस्सेव उवस्सए वसेज्ज सेज्जं तत्थेव गवेसिज्जा, ण य विसमं समं करेज्जा, ण !
फ
136. The second sentiment is about the bedding. The bedding a monk ! accepts is the lifeless grass, hard grass, grass growing in water, the hay, the grass with which broom is prepared, soft grass, such types of grass as para, mera, moojak, valvaj, flowers, fruit, skin of a tree, root, its wood and the like which he takes for use as bedding. If such articles are lying
in the upashraya, the monks do not use them unless they are specifically offered by the owner or the donor. In other words, even if the permission
for stay in the upashraya has been obtained, if he wants to use the grass
and the like lying in it, he should seek permission for it. Simply by
securing the permission for use of upashraya he should not take it for ! granted as permission for using things lying therein.
Thus a monk whose heart is in a state of equanimity regarding collection of articles saves himself from committing sin and getting sin committed. The sins leading to bad state of existence. He has a bent of mind to accept that only which is properly offered.
5 संवुडबहुले समाहिबहुले धीरे काएण फासयंतो सययं अज्झष्पज्झाणजुत्ते समिए एगे चरिज्ज धम्मं ।
तृतीय भावना - शय्या - परिकर्मवर्जन
THIRD SENTIMENT: AVOIDING SINFUL ACTIVITIES FOR GETTING BED
णिवाय - पवायउस्सुगत्तं, ण डंसमसगेसु खुभियव्वं, अग्गी धूमो ण कायव्वो, एवं संजमबहुले संवरबहुले
एवं सेज्जासमिइजोगेण भाविओ भवइ अंतरप्पा णिच्चं अहिगरण-करणकारावण - पावकम्मविरए दत्तमगुणाय उग्गहरुई ।
१३७. तीसरी भावना शय्या - परिकर्मवर्जन है। (साधु को ) चौकी, पट्टे, शय्या और संस्तारक के
लिए वृक्षों का छेदन नहीं करना चाहिए। वृक्षों के छेदन या भेदन से शय्या तैयार नहीं करवानी चाहिए।
साधु जिसके उपाश्रय में निवास करे ठहरे, वहीं शय्या की गवेषणा करनी चाहिए। वहाँ की भूमि यदि
श्री प्रश्नव्याकरण सूत्र
(338)
Jain Education International
2595555 5 5 5 5 5 5 55 5 5 5555 5 5 5 5 5555555 5 5 5951
Shri Prashna Vyakaran Sutra
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org