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45 130. An articles such as precious stone, pearl, rock, coral, bronze,
cloth, silver, gold, jewel and the like is lying or someone has forgotten or has lost in a village, shop, town, corporation, kheta, karbat, port, harbour, ashrama or at any other place. A person who is practicing the vow of adattadan virman (discarding that which is not given) can neither pick up such an article himself nor ask anyone to pick it up. It is because a monk has detached himself from desire for gold and silver. He considers gold and stone of same value for his self. He is totally without any feeling of attachment or collecting with such a feeling. He should wander in the world keeping his senses in self-restraint.
१३१. [१] जं वि य हुजाहि दबजायं खलगयं खेत्तगयं रण्णमंतरगयं वा किंचि पुप्फ-फल-तयप्पवाल-कंद-मूल-तण-कट्ठ-सस्कराइ अप्पं च बहुं च अणुं च थूलगं वा ण कप्पइ ॐ उग्गहम्मि अदिण्णंम्मि गिहिउं जे, हणि हणि उग्गहं अणुण्णविय गिहियव्यं, वज्जेयव्वो सव्वकालं
अचियत्तघरप्पवेसो अचियत्तभत्तपाणं अचियत्तपीढ-फलग-सिज्जा-संथारग-वत्थ-पत्त-कंबलदंडग-रयहरण-णिसिज्ज-चोलपट्टग-मुहपोत्तिय-पायपुंछणाइ भायण-भंडोवहि-उवगरणं परपरिवाओ
परस्स दोसो परववएसेणं जं च गिण्हइ, परस्स णासेइ जं च सुकयं, दाणस्स य अंतराइयं दाणविप्पणासो क पिसुण्णं चेव मच्छरियं च।
१३१. [१] (साधु को) कोई भी वस्तु, जो खलिहान में पड़ी हो, या खेत में पड़ी हो, या जंगल में कपड़ी हो, जैसे कि फूल हो, फल हो, प्रवाल हो, कन्द, मूल, तृण, काष्ठ या कंकर आदि हो, वह अल्प हो
या बहुत हो, सूक्ष्म हो या स्थूल हो, स्वामी के दिये बिना या उसकी आज्ञा प्राप्त किये बिना ग्रहण करना नहीं कल्पता। घर और स्थंडिलभूमि भी आज्ञा प्राप्त किये बिना ग्रहण करना उचित नहीं है।
(तो फिर साधु को किस प्रकार ग्रहण करना चाहिए? यह विधान किया जाता है कि) साधु को । उपाश्रय में रहने वाली वस्तु का उपभोग या ग्रहण वहां के स्वामी या अधिकारी की प्रतिदिन आज्ञा
लेकर करना चाहिए तथा अप्रीतिकारक घर में प्रवेश वर्जित करना चाहिए अर्थात् जिस घर के लोगों में 5 साधु के प्रति अप्रीति हो, ऐसे घरों में किसी वस्तु के लिए प्रवेश करना योग्य नहीं है। अप्रीतिकारक के
घर से आहार-पानी तथा पीठ, फलक-पाट, शय्या, संस्तारक, वस्त्र, पात्र, कंबल, दण्ड-विशिष्ट कारण
से लेने योग्य लाठी और पादपोंछन-पैर साफ करने का वस्त्रखण्ड आदि एवं भाजन-पात्र, भाण्ड-मिट्टी i के पात्र तथा उपधि-वस्त्रादि उपकरण भी ग्रहण नहीं करने चाहिए। साधु जो दूसरे की निन्दा करता है, दूसरे के दोष देखता है या किसी पर द्वेष करता है। (आचार्य, उपाध्याय, स्थविर, रुग्ण अथवा शैक्ष आदि) दूसरे के नाम से जो कोई वस्तु ग्रहण करता है तथा जो उपकार को या किसी के सुकृत को छिपाता है-नष्ट करता है, जो दान में अन्तराय करता है, अर्थात् दिये जाने वाले दान में किसी प्रकार से विघ्न डालता है, जो दान का विप्रणाश करता है अर्थात् दाता के नाम को छिपाता है, जो पैशुन्य
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| श्रु.२, तृतीय अध्ययन : दत्तानुज्ञात संवर
(323) Sh.2, Third Chapter: To Get... Samvar 555555555555555555555555555
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