SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 391
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ) ) ) ) ) ) ) )) ) 555555555555555555555555555 ॐ देती है। क्रोध का उद्रेक होने पर सत्-असत् का भान नहीं रहता और असत्य बोला जाता है। कहना चाहिए कि 卐 क्रोध के अतिशय आवेश में जो बोला जाता है, वह असत्य ही होता है। अतएव सत्य महाव्रत की सुरक्षा के के लिए क्रोध-प्रत्याख्यान अथवा अक्रोधवृत्ति परमावश्यक है। तीसरी भावना लोभत्याग या निर्लोभता है। क्रोध के बाद सत्य महाव्रत के पालन में बाधक लोभ है, लोभ से 5 होने वाली हानियों का मूल पाठ में ही विस्तार से कथन कर दिया गया है। शास्त्र में लोभ को समस्त सद्गुणों का विनाशक कहा है। जब मनुष्य के सिर पर लोभ का भूत सवार हो जाता है तो उसे भले बुरे किसी का भी 9 भान नहीं रहता। उसकी वाणी लुब्धता के कारण सत्य वचन से हट जाती है। अतएव सत्यव्रत की सुरक्षा चाहने ॥ वाले को निर्लोभवृत्ति धारण करनी चाहिए। किसी भी वस्तु के प्रति लालच उत्पन्न नहीं होना चाहिए। ॐ चौथी भावना भय-प्रत्याख्यान है। भय मनुष्य की बड़ी से बड़ी दुर्बलता है। भय मनुष्य के मस्तिष्क में छिपा हुआ विषाणु है जो उसे कायर, भीरु, निर्बल, सामर्थ्यशून्य और निष्प्राण बना देता है। भय वह पिशाच है जो 5 मनुष्य की वीर्यशक्ति को पूरी तरह सोख देता है। शास्त्रकार ने कहा है कि भयभीत पुरुष को भूत-प्रेत ग्रस्त कर ॐ लेते हैं। बहुत बार तो भय स्वयं ही भूत बन जाता है और उस मनोविनिर्मित भूत के आगे मनुष्य घुटने टेक देता है 卐 है। मनुष्य के मन में व्याधि, रोग, वृद्धावस्था, मरण आदि के अनेक प्रकार के भय विद्यमान रहते है। इसलिये शास्त्रकार ने साधकों को सत्य की सुरक्षा के लिये स्पष्ट निर्देश दिया है कि किसी भी प्रकार के भय से विचलित नहीं होना चाहिये। साथ ही भय आत्मा को तभी तक ज्यादा सताता है जब तक उसे स्वपर का भेद विज्ञान नहीं हो जाता। सारांश यह है कि भय की भावना आत्मिक शक्ति के परिबोध में बाधक है, साहस को तहस-नहस करने वाली है, समाधि की विनाशक है और संक्लेश को उत्पन्न करने वाली है। वह सत्य पर स्थिर नहीं रहने देती। अतएव सत्य भगवान के आराधक को निर्भय होना चाहिए। + पाँचवीं भावना है हास्यप्रत्याख्यान। सत्य महाव्रत और सत्य अणुव्रत दोनों के लिये हास्य बाधक है। सरल भाव से यथातथ्य वचनों के प्रयोग से हँसी-मजाक का रूप नहीं बनता। हास्य के लिए सत्य को विकृत करना पड़ता है। किसी के सद्गुणों को छिपाकर दुर्गुणों को उघाड़ा करना होता है। अभिप्राय यह है कि सर्वांश या अधिकांश में सत्य को छिपाकर असत्य का आश्रय लिए बिना हँसी-मजाक नहीं होता। इससे सत्यव्रत का ॥ विघात होता है और अन्य को पीड़ा होती है। अतएव सत्यव्रत के संरक्षण के लिए हास्यवृत्ति का परिहार करना __ आवश्यक है। ___जो साधक हास्यशील होता है, साथ ही तपस्या भी करता है, वह तप के फलस्वरूप यदि देवगति पाता है तो भी किल्विषिक या आभियोगिक जैसे निम्न कोटि के देवों में जन्म पाता है। श्री भगवतीसूत्र के शतक १, ॐ उ.२ में बताया गया है कि हास्य करने वाला साधु मरकर सौधर्म देवलोक से ऊपर नहीं जाता है और नीचे के 5 देवलोक में जहाँ जाता है वहाँ वह देवगणों में अस्पृश्य दास जैसी स्थिति में रहता है। उसे उच्च श्रेणी का देवत्व, प्राप्त नहीं होता और यदि उसे अवधिज्ञान प्राप्त हुआ हो तो हास्यशील होने से वो भी नष्ट हो जाता है। इस प्रकार ॐ हास्यवृत्ति महान् फल को भी तुच्छ बना देती है। साधु को इस प्रकार का चिन्तन करना चाहिये कि हास्य संसार वर्द्धक और चारित्रनाशक चेष्टा है। इससे मेरी आत्मा का कोई लाभ नहीं है। बल्कि इतने शुद्ध संयम पालन के साथ हास्यक्रिया करना दूध के लोटे में श्रु.२, द्वितीय अध्ययन : सत्य संवर (315) Sh.2, Second Chapter: Truth Samvar )) ) )) )) )) )) ) ) s hahahahah 35555555555555555555555555555555555 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002907
Book TitleAgam 10 Ang 10 Prashna Vyakaran Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Varunmuni, Sanjay Surana
PublisherPadma Prakashan
Publication Year2008
Total Pages576
LanguageHindi, English
ClassificationBook_Devnagari, Book_English, Agam, Canon, Conduct, & agam_prashnavyakaran
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy