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सत्य के दस प्रकार
शास्त्रकार ने ठाणांग सूत्र के दशवें स्थान में मूल पाठ में दस प्रकार के सत्य बताये हैं। इनका स्वरूप इस प्रकार है
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जणवय-सम्मय-टवणा नाम-रूवे पडुच्चसच्चे य।
ववहार-भाव-जोगे, दसमे ओवम्मसच्चे य॥ १. जनपदसत्य-जिस देश-प्रदेश में किसी वस्तु विशेष के लिए जो शब्द प्रयुक्त होता हो, वहाँ उस वस्तु विशेष के लिए उसी शब्द का प्रयोग करना जनपद सत्य कहलाता है, जैसे महाराष्ट्र में माता को 'आई' कहना, पंजाब में नाई को 'राजा' कहना।
२. सम्मतसत्य-बहुत लोगों ने जिस शब्द को जिस वस्तु का वाचक मान लिया हो, उसे सम्मत सत्य कहते हैं जैसे 'देवी' शब्द पटरानी का वाचक मान लिया गया है। अतः पटरानी को 'देवी' कहना सम्मत सत्य है।
३. स्थापनासत्य-जिसकी मूर्ति हो उसे उसी के नाम से कहना, स्थापना सत्य कहलाता है। म जैसे-इन्द्रमूर्ति को इन्द्र कहना या शतरंज की गोटियों को हाथी, घोड़ा आदि कहना।
४. नामसत्य-जिसका जो नाम हो उसे गुण न होने पर भी उस शब्द से कहना, जैसे-कुल की वृद्धि न करने वाले को भी ‘कुलवर्द्धन' कहना। __५. रूपसत्य-इसमें गुण की अपेक्षा रूप को प्रधानता दी जाती है। साधु के गुण न होने पर भी वेषमात्र से असाधु को साधु कहना।
६. प्रतीत्यसत्य-अपेक्षाविशेष से कोई वचन बोलना, जैसे-दूसरी उँगली की अपेक्षा से किसी उँगली है को छोटी या बड़ी कहना, द्रव्य की अपेक्षा सब पदार्थों को नित्य कहना या पर्याय की अपेक्षा से सबको
क्षणिक कहना। ____७. व्यवहारसत्य-जो वचन लोकव्यवहार की दृष्टि से सत्य हो, जैसे-रास्ता तो कहीं जाता नहीं, किन्तु कहा जाता है कि यह रास्ता अमुक नगर को जाता है, गाँव आ गया आदि।
८. भावसत्य-अनेक गुणों की विद्यमानता होने पर भी किसी प्रधान गुण की विवक्षा करके कहना, जैसे-तोते में लाल वर्ण होने पर भी उसे हरा कहना। __९. योगसत्य-संयोग के कारण किसी वस्तु को किसी शब्द से कहना, जैसे-दण्ड धारण करने के 5 कारण किसी को दण्डी कहना।
१०. उपमासत्य-समानता के आधार पर किसी शब्द का प्रयोग करना, जैसे-मुख-चन्द्र आदि।
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नानागानामामामा
श्रु.२, द्वितीय अध्ययन : सत्य संवर
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Sh.2, Second Chapter : Truth Samvar |
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