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________________ 555555555555555555555555555555555555 ___ अणंत असरणं दुरंतं अधुवमणिच्चं असासयं पावकम्मणेम्मं अवकिरियव्वं विणासमूलं वहबंधपरिकिलेसबहुलं अणंतसंकिलेसकारणं, ते तं धणकणगरयणणिचयं पिंडिया चेव लोहघत्था संसारं ॐ अइवयंति सव्वदुक्खसंणिलयणं। ९५. परिग्रह के लोभ से ग्रस्त-लालच के जाल में फँसे हुए, परिग्रह में रुचि रखने वाले, श्रेष्ठ ॐ भवनों में और विमानों में निवास करने वाले (भवनवासी एवं वैमानिक देव) ममत्वपूर्वक इसे ग्रहण करते हैं। नाना प्रकार से परिग्रह को संचित करने की बुद्धि वाले देवों के समूह-निकाय, यथा-असुरकुमार, नागकुमार, सुपर्णकुमार, विद्युत्कुमार, ज्वलन (अग्नि) कुमार, द्वीपकुमार, उदधिकुमार, दिक्कुमार, पवनकुमार, स्तनितकुमार (ये दस प्रकार के भवनवासी देव) तथा अणपन्निक, पणपन्निक, ऋषिवादिक, भूतवादिक, क्रन्दित, महाक्रन्दित, कूष्माण्ड और पतंग (ये आठ प्रकार # व्यन्तरनिकाय के अन्तर्गत देव) और (पिशाच, भूत, यक्ष, राक्षस, किन्नर, किम्पुरुष, महोरग एवं गन्धर्व, ये आठ प्रकार के महर्द्धिक व्यन्तर देव) तथा तिर्यक्लोक-मध्यलोक में विचरण करने वाले पाँच फ़ प्रकार के ज्योतिष्क देव, बृहस्पति, चन्द्र, सूर्य, शुक्र और शनैश्चर, राहु, केतु, बुध, (तपाये हुए स्वर्ण जैसे वर्ण वाला-मंगल), और अंगारक, केतु अन्य जो भी ग्रह ज्योतिष्चक्र में संचरण करते हैं, तथा # गति में प्रीति अनुभव करने वाले, अट्ठाईस प्रकार के नक्षत्र देवगण, नाना प्रकार के संस्थान-आकार वाले तारागण, स्थिर कान्ति वाले अर्थात् मनुष्य क्षेत्र-अढाई द्वीप से बाहर स्थिर रहने वाले ज्योतिष्क और मनुष्य क्षेत्र के भीतर संचरण करने वाले, जो तिर्यक लोक के ऊपरी भाग में (समतल भमि से ७९० योजन से लगाकर ९०० योजन तक की ऊँचाई में) रहने वाले तथा अविश्रान्त लगातार-बिना रुके वर्तुलाकार गति करने वाले हैं (ये सभी देव परिग्रह में आसक्त रहते हैं)। (इनके अतिरिक्त) ऊर्ध्वलोक में निवास करने वाले वैमानिक देव दो प्रकार के हैं-कल्पोपपन्न और फकल्पातीत। सौधर्म, ईशान, सनत्कुमार, माहेन्द्र, ब्रह्मलोक, लान्तक, महाशुक्र, सहस्रार, आनत, प्राणत, आरण और अच्युत, ये उत्तम कल्प-विमानों में वास करने वाले-कल्पोपपन्न हैं। (इनके ऊपर) नौ ग्रैवेयकों और पाँच अनुत्तर विमानों में रहने वाले दोनों प्रकार के देव कल्पातीत हैं। ये विमानवासी (वैमानिक) देव महान् ऋद्धि के धारक, श्रेष्ठ सुरवर हैं। ये चारों निकायों के (देव), अपनी-अपनी परिषद् (परिवार) सहित परिग्रह में मूर्छाभाव रखते हैं। 'ये मेरे हैं' इस प्रकार की ममत्व बुद्धि रखते हैं। ये सभी देव भवन, हस्ती आदि वाहन, रथ आदि 卐 अथवा विमान आदि यान, पुष्पक आदि विमान, शय्या, भद्रासन, सिंहासन प्रभृति आसन, विविध प्रकार ॐ के वस्त्र एवं उत्तमोत्तम शस्त्रास्त्रों को, अनेक प्रकार की मणियों से बने पंचरंगी दिव्य भाजनों-पात्रो को, वैक्रियलब्धि से इच्छानुसार रूप बनाने वाली कामरूपा अप्सराओं के समूह को और द्वीपों, समुद्रों, पूर्व आदि दिशाओं, ईशान आदि विदिशाओं, चैत्य वृक्षों, वनखण्डों और पर्वतों को, ग्रामों और नगरों को, आरामों, उद्यानों और जंगलों को, कूप, सरोवर, तालाब, बावड़ी, लम्बी बावड़ी, देवालय, सभा, प्रपा और बस्ती को और बहुत-से स्तुतियोग्य धर्मस्थानों को ममत्वपूर्वक स्वीकार करते हैं। इस प्रकार विपुल 听听听听听听听FFFFFFFFFFFFFFFFFFF श्रु.१, पंचम अध्ययन : परिग्रह आश्रव ( 233 ) Sh.1, Fifth Chapter: Attachment Aasrava 因牙牙牙牙乐555555555555555555555555555555目 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002907
Book TitleAgam 10 Ang 10 Prashna Vyakaran Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Varunmuni, Sanjay Surana
PublisherPadma Prakashan
Publication Year2008
Total Pages576
LanguageHindi, English
ClassificationBook_Devnagari, Book_English, Agam, Canon, Conduct, & agam_prashnavyakaran
File Size19 MB
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