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________________ 555555555555555555555555555555555555 विशिष्ट द्रव्य वाले परिग्रह को ग्रहण करके भी इन्द्रों सहित देवगण को तृप्ति और सन्तुष्टि का अनुभव नहीं होता। 555555555555555555555 955555555)))))))))) म सब देव अत्यन्त तीव्र लोभ से अभिभूत संज्ञा वाले हैं, अतः हेमवन्त, महाहिमवन्त आदि वर्षधर पर्वतों, इषुकार-(धातकीखण्ड और पुष्करवर द्वीपों को विभक्त करने वाले दक्षिण और उत्तर दिशाओं 5 में लम्बे) पर्वत, वृत्तपर्वत-(शब्दापाती आदि गोलाकार पर्वत), कुण्डल-(जम्बूद्वीप से ग्यारहवें कुण्डल नामक द्वीप में कुण्डलाकार) पर्वत, रुचकवर-(पन्द्रहवें रुचक नामक द्वीप में मण्डलाकार रुचकवर नामक पर्वत), मानुषोत्तर- (मनुष्यक्षेत्र की सीमा निर्धारित करने वाला) पर्वत, कालोदधिसमुद्र, म लवणसमुद्र, गंगा आदि महानदियाँ, पद्म, महापद्म आदि हृद-सरोवर, रतिकर पर्वत-(आठवें नन्दीश्वर नामक द्वीप के कोण में स्थित झालर के आकार के चार पर्वत), अंजनक पर्वत (नन्दीश्वर द्वीप के चक्रवाल में रहे हुए कृष्ण वर्ण के पर्वत), दधिमुख पर्वत-(अंजनक पर्वतों के पास की सोलह पुष्करणियों में स्थित १६ पर्वत), अवपात पर्वत-(वैमानिक देव मनुष्य क्षेत्र में आने के लिए जिन पर उतरते हैं), उत्पात पर्वत-(भवनपति देव जिनसे ऊपर उठकर मनुष्य क्षेत्र में आते हैं-वे तिगिंछ कूट आदि), 卐 कांचनक- (उत्तरकुरु और देवकुरु क्षेत्रों में स्थित स्वर्णमय पर्वत), चित्र-विचित्र पर्वत (निषध नामक वर्षधर पर्वत के निकट शीतोदा नदी के किनारे चित्रकूट और विचित्रकूट नामक पर्वत), ॐ यमकवर-(नीलवन्त नामक वर्षधर पर्वत के समीप के शीता नदी के तट पर स्थित दो पर्वत), म शिखरी-(समुद्र में स्थित गोस्तूप आदि पर्वत) खूट-(नन्दनवन के कूट) आदि में रहने वाले ये देव भी असीम परिग्रह के सुख-भोग से तृप्ति और संतुष्टि का अनुभव नहीं कर पाते हैं। (फिर अन्य प्राणियों का है तो कहना ही क्या ! वे परिग्रह से कैसे तृप्त हो सकते हैं ?) ॐ वक्षस्कार पर्वतों (विजयों को विभक्त करने वाले चित्रकूट आदि पर्वत) में तथा अकर्मभूमियों में 卐 (हैमवत आदि भोगभूमि के क्षेत्रों में) और भलीभाँति विभक्त प्रदेश वाली भरत, ऐरवत आदि पन्द्रह कर्मभूमियों में जो भी मनुष्य निवास करते हैं, जैसे-चक्रवर्ती, वासुदेव, बलदेव, माण्डलिक राजा ॐ (मण्डल के अधिपति महाराजा), ईश्वर-युवराज, बड़े-बड़े ऐश्वर्यशाली लोग, तलवर (राज-सन्मानित + मस्तक पर स्वर्णपट्ट बाँधे हुए राजस्थानीय), सेनापति, इभ्य (हस्ति प्रमाण स्वर्ण राशि के स्वामी), श्रेष्ठी 4 (श्री देवता द्वारा अलंकृत चिह्न को मस्तक पर धारण करने वाले सेठ), राष्ट्रिक (राष्ट्र अर्थात् देश की म उन्नति-अवनति के विचार के लिए नियुक्त अधिकारी), पुरोहित (शान्तिकर्म करने वाले), राजकुमार, दण्डनायक (कोतवाल), माडम्बिक (मडम्ब के अधिपति-छोटे राजा), सार्थवाह (अनेक छोटे व्यापारियों आदि को साथ लेकर विदेश यात्रा करने वाले बड़े व्यापारी), कौटुम्बिक (बड़े कुटुम्ब के प्रधान या गाँव के मुखिया) और अमात्य (मंत्री), ये सब और इनके अतिरिक्त अन्य जो भी मनुष्य हैं, वे सब परिग्रह का संचय करते हैं। वह परिग्रह अनन्त है-जिसका कोई अन्त या परिमाण नहीं है। जो किसी को भी शरण देने में समर्थ ॐ नहीं है। अर्थात् दुःख से रक्षा करने में असमर्थ है, दुःखमय अन्त वाला है, अस्थिर एवं प्रतिक्षण + विनाशशील होने से अशाश्वत है, पापकर्मों का मूल है, ज्ञानीजनों के लिए त्याज्य है, विनाश का मूल के 听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听 555555555555 FF听听听听听听听听听听听FFF 卐 श्री प्रश्नव्याकरण सूत्र (234) Shri Prashna Vyakaran Sutra 听听听听听听听听听听听$听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听四 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002907
Book TitleAgam 10 Ang 10 Prashna Vyakaran Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Varunmuni, Sanjay Surana
PublisherPadma Prakashan
Publication Year2008
Total Pages576
LanguageHindi, English
ClassificationBook_Devnagari, Book_English, Agam, Canon, Conduct, & agam_prashnavyakaran
File Size19 MB
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