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555555555555555555555555555555555555 कठोर ज्ञानावरणीय आदि कर्मों रूपी पाषाणों से उठी हुई तरंगों के समान चंचल है। सदैव बना रहने वाला मृत्यु का भय उस संसार-समुद्र के जल का तल है। ___ वह संसार-सागर कषायरूपी पाताल-कलशों से व्याप्त है। लाखों भवों की परम्परा उसकी विशाल जलराशि है। वह अनन्त है-उसका कहीं ओर-छोर दृष्टिगोचर नहीं होता। वह उद्वेग उत्पन्न करने वाला है। कहीं उसका तट-किनारा नहीं है। दुस्तर होने के कारण महान् भय रूप है। भय उत्पन्न करने वाला है। उसमें प्रत्येक प्राणी को एक-दूसरे के कारण प्रति भय बना रहता है। जिनकी कहीं कोई सीमा अन्त नहीं, ऐसी विपुल कामनाओं और कलुषित बुद्धिरूपी पवन आँधी के प्रचण्ड वेग के कारण उत्पन्न तथा आशा-(अप्राप्त पदार्थ को प्राप्त करने की अभिलाषा) और पिपासा-(प्राप्त भोगोपभोगों को भोगने की लोलुपता) रूप पाताल, समुद्र तल से उठते हुए काम-रति शब्दादि विषयों सम्बन्धी अनुराग और द्वेष के बन्धन के कारण उत्पन्न विविध प्रकार के संकल्परूपी जल-कणों की प्रचुरता से वह अन्धकारमय हो रहा है। ___ इस संसार-सागर में प्राणी मोहरूपी भँवरों (आवर्तों) में गोलाकार चक्कर लगाते हुए व्याकुल होकर उछल रहे हैं तथा बहुत-से बीच के भाग में फैलने के कारण ऊपर उछलकर नीचे गिर रहे हैं। इस संसार-सागर में इधर-उधर दौड़ते हुए अनेक प्रकार के व्यसनों से ग्रस्त लोगों का प्रचण्ड वायु के थपेड़ों से टकराता हुआ तथा दुःखदायी लहरों से विक्षुब्ध एवं तरंगों से फूटता हुआ तथा बड़ी-बड़ी अस्थिर कल्लोलों से व्याप्त रुदन रूप जल बह रहा है। ___ वह प्रमादरूपी अत्यन्त रौद्र एवं दुष्ट हिंसक जन्तुओं द्वारा सताये गये एवं इधर-उधर घूमते हुए प्राणियों के समूह का विध्वंश करने वाले घोर अनर्थों से भरा है। उसमें अज्ञानरूपी बड़े-बड़े भयानक मच्छ घूमते रहते हैं। अनुपशान्त इन्द्रियों वाले जीवरूपी महामगरों की नयी-नयी उत्पन्न होने वाली उथल-पुथल मचाती चेष्टाओं से वह अत्यन्त क्षुब्ध हो रहा है। उसमें वाहवाही की तरह नाना प्रकार के सन्ताप विद्यमान हैं, ऐसे प्राणियों के द्वारा पूर्व संचित एवं पापकर्मों के उदय से प्राप्त होने वाला तथा भोगा जाने वाला फलरूपी घूमता हुआ-चक्कर खाता हुआ जल-समूह है जो बिजली के समान अत्यन्त चंचल रहता है। दुःखी होते हुए प्राणियों को जैसे समुद्र में कोई त्राण-शरण नहीं होता, इसी प्रकार संसार में अपने पापकर्मों का फल भोगने से कोई बचाने वाला नहीं है। ___ संसार-सागर में ऋद्धिगौरव, रसगौरव और सातागौरवरूपी अपहार-हिंसक जलचर जन्तु द्वारा पकड़े हुए एवं कर्मबन्धनों से बँधे हुए प्राणी जब नरकरूप पाताल-तल के सम्मुख पहुँचते हैं तो अत्यन्त खेद और विषादयुक्त हो जाते हैं, ऐसे विषम व खिन्न जीवों से यह भरा है। वह अरति, रति, भय, दीनता, शोक तथा मिथ्यात्वरूपी पर्वतों से विषम बना हुआ है। अनादि सन्तान-परम्परा वाले कर्मबन्धन एवं राग-द्वेष आदि क्लेशरूप कीचड़ से भरा होने के कारण इसे पार करना अत्यन्त कठिन है। जैसे समुद्र में ज्वार आते हैं, उसी प्रकार संसार-समुद्र में देवगति, मनुष्यगति, तिर्यंचगति और नरकगति में गमनागमन रूप टेढ़े-मेढ़े परिवर्तनों से युक्त विस्तीर्ण वेला-ज्वार-आते रहते हैं। हिंसा, असत्य, चोरी, मैथुन और परिग्रह रूप आरम्भ के करने, कराने और अनुमोदने से संचित ज्ञानावरण आदि आठ कर्मों
| श्रु.१, तृतीय अध्ययन : अदत्तादान आश्रव
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Sh.1, Third Chapter: Stealing Aasrava
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