________________
555555555555555555555555555555555555
मोहमहावत्त-भोगभममाणगुप्पमाणुच्छलंत-बहुगब्भवासपच्चोणियत्तपाणियं पहाविय-वसणसमावण्ण रुण्ण-चंडमारुयसमाहया
मणुण्णवीची-वाकुलियभग्गफुटतणिट्ठकल्लोल-संकुलजलं. ॐ पमायबहुचंडदुट्ठसावयसमाहय-उद्घायमाणगपूरघोरविद्धंसणत्थबहुलं अण्णाणभमंत-मच्छपरिहत्थं
अणिहुतिंदिय-महामगरतुरिय-चरिय-खोखुब्भमाण-संतावणिचयचलंत-चवल-चंचल-अत्ताणअसरण-पुवकयकम्मसंचयोदिण्ण-वज्जवेइज्जमाण-दुहसय-विवागधुण्णंतजल-समूह। ___ इड्ढि-रस-साय-गारवोहार-गहिय-कम्मपडिबद्ध-सत्तकडिजमाण-णिरयतलहुत्त-सण्णविसण्णबहुलं + अरइ-रइ-भय-विसाय-सोगमिच्छत्तसेलसंकडं अणाइसंताण-कम्मबंधण-किलेसविक्खिल्लसुदुत्तारं अमरॐ णर-तिरिय-णिरयगइ-गमण-कुडिलपरियत्त-विपुलवेलं हिंसालिय-अदत्तादाण-मेहुणपरिग्गहारंभकरण
कारावणाणुमोयण-अट्ठविह-अणिट्ठकम्मपिंडिय-गुरुभारक्कंतदुग्गजलोघ-दूरपणोलिज्जमाण-उम्मुग्गणिमग्ग-दुल्लभतलं।
सारीरमणोमयाणि दुक्खाणि उप्पियंता सायस्सायपरितावणमयं उब्बुडणिब्बुड्डयं करेंता चउरंतमहंतॐ मणवयगं रुई संसारसागरं अट्ठियं अणालंबण-मपइटाण-मप्पमेयं चुलसीइ-जोणि-सयसहस्सगुविलं
अणालोकमंधयारं अणंतकालं णिच्चं उत्तत्थसुण्णभयसण्णसंपउत्ता वसंति, उबिग्गवासवसहिं। ___जहिं आउयं णिबंधति पावकम्मकारी, बंधव-जण-सयण-मित्तपरिवज्जिया अणिवा भवंति
अणाइजदुविणीया कुटाणा-सण-कुसेज्ज-कुभोयणा असुइणो कुसंघयण-कुप्पमाण-कुसंठिया, कुरूवा 卐 बहु-कोह-माण-माया-लोहा बहुमोहा धम्मसण्ण-सम्मत्त-परिभट्ठा दारिद्दोवद्दवाभिभूया णिच्चं ॥
परकम्मकारिणो जीवणत्थरहिया किविणा परपिंडतक्कगा दुक्खलद्धाहारा अरस-विरस-तुच्छ-कयॐ कुच्छिपूरा परस्स पेच्छंता रिद्धि-सक्कार-भोयणविसेस-समुदयविहिं जिंदंता अप्पगं कयंतं च परिवयंता
इह य पुरेकडाई कम्माइं पावगाइं विमणसो सोएण उज्झमाणा परिभूया होंति, सत्तपरिवज्जिया य छोभा , ॐ सिप्पकला-समय-सत्थ-परिवज्जिया जहाजायपसुभूया अवियत्ता णिच्च-णीय-कम्मोवजीविणो लोयकुच्छणिज्जा मोघमणोरहा णिरासबहुला।
७७. (बन्धनों से जकड़ा वह जीव अनन्त काल तक संसार-सागर में ही परिभ्रमण करता रहता है। संसार-सागर का स्वरूप कैसा है, यह एक रूपक द्वारा समझाया गया है।)
नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देवगति में गमनागमन करना संसार-सागर की बाह्य परिधि (घेरा) है। जन्म, जरा और मरण के कारण होने वाला गम्भीर दुःख ही संसार-सागर का अत्यन्त प्रचुर क्षुब्ध जल
है। इसमें संयोग और वियोगरूपी लहरें उठती रहती हैं। निरन्तर बनी रही चिन्ता ही उसका 卐 प्रसार-विस्तार है। परस्पर वध और बन्धन ही उसमें लम्बी-लम्बी, ऊँची एवं विस्तीर्ण तरंगें हैं। उसमें
करुण विलाप तथा लोभ की कलकलाहट की ध्वनि की प्रचुरता है। घोर गर्जना है। उसमें अवमानना या ॐ तिरस्काररूपी फेन (झाग) उठती रहती है। तीव्र-निन्दा, पुनः-पुनः उत्पन्न होने वाले रोग, वेदना, म तिरस्कार, पराभव, अधःपतन, कठोर झिड़कियाँ और डाँट-फटकार जिनके कारण प्राप्त होती हैं, ऐसे में
959555555555555555555555555)))))))))))))))))))
श्री प्रश्नव्याकरण सूत्र
(166)
Shri Prashna Vyakaran Sutra
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org