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तत्पश्चात् कभी किसी पुण्य-प्रभाव से मनुष्यगति प्राप्त करता है तो नीच कुल में जन्म लेता है और पशुओं सरीखा जीवन व्यतीत करता है। पूर्व कुसंस्कारों के कारण उसकी रुचि पापकर्मों में ही रहती है।
नरकगति और तिर्यंचगति में होने वाले दुःखों का प्रथम आस्रवद्वार में विस्तारपूर्वक वर्णन किया जा
चुका है।
पापी जीव अपनी आत्मा को किस प्रकार कर्मों से लिप्त कर लेता है, इसके लिए शास्त्र में 'कोसिकारकीडोब्ब' अर्थात् कोशिकारकीट-रेशम के कीड़े की यथार्थ उपमा दी गई है। यह कीड़ा अपनी ही लार से अपने आपको लपेटने वाले आवरण का निर्माण करता है। उसके मुख से निकली लार तन्तुओं का रूप धारण कर लेती है और उसी के शरीर पर लिपटकर उसे घेर लेती है। इस प्रकार वह कीड़ा अपने लिए आप ही बन्धन तैयार करता है। इसी प्रकार पापी जीव स्वयं अपने किये कर्मों द्वारा बँधता जाता है। ___Elaboration-As a result of the sin of theft (adattadan), the soul takes birth in hell and animal state again and again. It suffers pain there for an infinite period.
Thereafter as a result of some merit-bearing karma, this soul takes birth as a human being. There also he is born in a low class family and is treated like animals. He has an interest in sinful activities due to the earlier way of life inherited by him.
A detailed account of troubles faced in liell and in animal state of existence has been given in the first Aasrava dvar.
The words 'Kosikaarkeedov' has been used in scriptures to define how a sinner affects his self with bad karmas. Here the most suitable example is given of kosikaarkeet which means silk-worm. This worm with its saliva prepares its own cover. The saliva turns into thread and covers its body with a bondage. Thus silk-worm prepares its own bondage itself. Similarly the sinner binds himself with his own Karmas.
संसार-सागर THE MUNDANE OCEAN
७७. एवं णरग-तिरिय-णर-अमर-गमण-पेरंतचक्कवालं जम्म-जरा-मरण-करणगंभीरदुक्खपक्खुभिय-पउरसलिलं संजोगवियोगवीची-चिंतापसंग-पसरिय-वह-बंध-महल्लविपुलकल्लोलं कलुण-विलविय-लोभ-कलकलिंत-बोलबहुलं अवमाणणफेणं तिव्वखिंसणपुलंपुलप्पभूयरोग-वेयण-पराभव विणिवायफरुस-धरिसण-समावडिय-कठिणकम्मपत्थर-तरंग-रंगंत-णिच्चमच्चु-भयतोयपढें। ___ कसायपायालसंकुलं भव-सयसहस्सजलसंचयं अणंतं उव्वेयणयं अणोरपारं महब्भयं भयंकरं पइभयं अपरिमियमहिच्छ-कलुस-मइ-वाउवेगउद्धम्ममाणं आसापिवासपायाल-काम-रइ-रागदोस-बंधणबहुविहसंकप्प-विउलदगरयरयंधकारं।
| श्रु.१, तृतीय अध्ययन : अदत्तादान आश्रव
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Sh.1, Third Chapter : Stealing Aasrava
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