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ऊ के गुरुतर भार से दबे हुए तथा व्यसन रूपी जलप्रवाह द्वारा दूर फैंके गये प्राणियों के लिए इस संसारफ़ सागर को तैर पाना अत्यन्त कठिन है।
इस संसार-सागर में डूबे प्राणी शारीरिक और मानसिक दुःखों का अनुभव करते रहते हैं। संसार, सम्बन्धी सुख-दुःख से उत्पन्न होने वाले परिताप के कारण वे कभी ऊपर उठकर तैरने की और कभी
डूबने की चेष्टाएँ करते रहते हैं। यह संसार-सागर चार दिशा रूप चार गतियों के कारण अत्यन्त : ॐ विशाल है। यह अन्तहीन और विस्तृत है। संयम में अस्थिर अर्थात असंयमी जीवों के लिए यहाँ कोई - + आलम्बन नहीं है, सुरक्षा के लिए कोई साधन नहीं है। यह छद्मस्थ जीवों के ज्ञान का विषय नहीं है, या 5
इसकी कहीं अन्तिम सीमा नहीं है। यह चौरासी लाख जीवयोनियों से व्याप्त-भरपूर है। यहाँ । अज्ञानानन्धकार छाया रहता है और यह अनन्तकाल तक स्थायी है। यह संसार-सागर उद्वेग-प्राप्त-दुः खी प्राणियों का निवास स्थान है।
इस संसार-सागर में रहने वाले पापकर्मकारी प्राणी जहाँ-जिस ग्राम, कल आदि की आय बाँधते हैं, वहीं पर वे बन्धु-बान्धवों, स्वजनों और मित्रजनों से रहित होते हैं, अर्थात् उनका कोई सहायक, आत्मीय या प्रेमी नहीं होता। वे सभी को अप्रिय लगते हैं। उनके वचनों को कोई मानता नहीं और वे स्वयं दुर्विनीत-उद्दण्ड स्वभाव के होते हैं। उन्हें रहने को खराब स्थान, बैठने को खराब आसन, सोने को खराब शय्या और खाने को खराब भोजन मिलता है। वे अशुचि-अपवित्र या गन्दे तथा आचरण से है अपवित्र रहते हैं अथवा अश्रुति-शास्त्रज्ञान से विहीन होते हैं। उनका संहनन (हाड़ों की बनावट) विकृत होता है, उनके शरीर का कोई ढाँचा सामान्य से अधिक छोटा अथवा बड़ा होता है। उनके शरीर की है आकृति बेडौल होती है। वे दीखने में बदसूरत होते हैं। उनमें क्रोध, मान, माया और लोभ तीव्र होता है-तीव्रकषायी होते हैं और मोह-आसक्ति की तीव्रता होती है। उनमें धर्मसंज्ञा-धार्मिक संस्कार नहीं होते। वे सम्यग्दर्शन से रहित होते हैं। उन्हें दरिद्रता का कष्ट सदा सताता रहता है। वे सदा दूसरों के म अधीन रहकर, नौकर-चाकर रहकर जिन्दगी बिताते हैं।
कृपण-रंक-दीन-दरिद्र रहते हैं। दूसरों के द्वारा दिये जाने वाले आहार की ताक में रहते हैं। वे सरलता से अपना पेट भी नहीं भर पाते। किसी प्रकार रूखे-सूखे, नीरस एवं निस्सार भोजन से पेट भरते हैं। दूसरों का वैभव, सत्कार-सम्मान, भोजन, वस्त्र आदि उत्कर्ष देखकर वे अपनी निन्दा करते हैं-अपने दुर्भाग्य को कोसते रहते हैं। अपनी तकदीर को रोज रोते हैं। इस जन्म में या पूर्वजन्म में किये ॥ हुए पापकर्मों को कोसते रहते हैं। उदास मन रहकर शोक की आग में जलते हुए अफसोस कर लज्जित
होते हैं। साथ ही वे सत्त्वहीन, साहसहीन, चिड़चिड़े स्वभाव वाले तथा चित्रकला आदि शिल्प के ज्ञान से # रहित, भौतिक विद्याओं से शून्य एवं सिद्धान्त-शास्त्र के ज्ञान से रहित होते हैं। वे अज्ञान पशु के समान ॥
जड़ बुद्धि वाले, अविश्वसनीय या अप्रतीति उत्पन्न करने वाले होते हैं। सदा नीच कर्म करके अपनी आजीविका चलाते हैं-वे लोकनिंदा के पात्र, असफल मनोरथ वाले, निराशा से ग्रस्त होते हैं।
77. The mundane soul due to its own bondage of Karmas keeps on wandering in the ocean of mundane existence for an infinite period. What is the nature of the worldly ocean. It has been explained with an analogy. 5
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श्री प्रश्नव्याकरण सूत्र
(168)
Shri Prashna Vyakaran Sutra
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