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________________ 1955555555555 यदृच्छावाद-अर्थात् जैसी ईश्वर की इच्छा थी वैसा स्वतः हो जाना। यदृच्छावाद का मन्तव्य है-प्राणियों को जो भी सुख या दुःख होता है, वह सब अचानक-अतर्कित ही उपस्थित हो जाता है। जैसे-कौआ आकाश में उडता-उडता अचानक किसी ताड वक्ष के नीचे पहँचा और अचानक ही ताड का फल टूटकर गिरा और कौआ उससे घायल हो गया। सब कुछ अकस्मात् हो गया। इसी प्रकार जगत् में जो घटनाएँ घटित होती हैं, वे सब बिना इरादे के सहज ही घट जाती हैं। बुद्धिपूर्वक कुछ भी नहीं होता। अतएव अपने प्रयत्न एवं पुरुषार्थ का अभिमान करना वृथा है। स्वभाववाद-पदार्थ का स्वतः ही भिन्न-भिन्न रूपों में परिणमन होना स्वभाववाद कहलाता है। स्वभाववादियों का कथन है-जगत् में जो कुछ भी होता है, सब स्वभाववश स्वतः ही हो जाता है। मनुष्य के करने से कुछ भी नहीं होता। काँटे की तीक्ष्णता, मयर-पंखों की विचित्रता और मर्गे के पंखों के रंग, कौन बनाने वाला है? वस्तुतः यह सब स्वभाव से ही होता है। गन्ने में मिठास, मिर्च में तीखा चटपटापन, इत्यादि सब कार्य स्वभाव से होते रहते हैं। इसमें न किसी की इच्छा काम आती है, न कोई इसके लिए प्रयत्न या पुरुषार्थ करता है। इसी प्रकार जगत् के समस्त कार्यकलाप स्वभाव से ही हो रहे हैं। पुरुषार्थ को कोई स्थान नहीं है। लाख प्रयत्न करके भी कोई वस्तु के स्वभाव में तनिक भी परिवर्तन नहीं कर सकता। विधिवाद-जगत् में कुछ लोग एकान्त विधिवाद-भाग्यवाद का समर्थन करते हैं। उनका कथन है कि प्राणियों को जो भी सुख-दुःख होता है, जो हर्ष-विवाद के प्रसंग उपस्थित होते हैं, न तो यह इच्छा से और न स्वभाव से होते हैं, किन्तु विधि या भाग्य-दैव से ही होते हैं। दैव की अनुकूलता हो तो बिना पुरुषार्थ किये इष्ट वस्तु प्राप्त हो जाती है और जब भाग्य प्रतिकूल होता है तो हजार-हजार प्रयत्न करने पर भी कुछ प्राप्ति नहीं होती। अतएव संसार में सुख-दुःख का जनक भाग्य ही है। विधिवादी कहते हैं-जिस वस्तु की प्राप्ति होनी होती है वह हो ही जाती है, क्योंकि दैव सर्वोपरि है, उसकी शक्ति अप्रतिहत है। अतएव दैववश जो कुछ होता है, उसके लिए मैं न तो शोक करता हूँ और न विस्मय में पड़ता हूँ। जो हमारा है, वह हमारा ही होगा। वह किसी अन्य का नहीं हो सकता। नियतिवाद-विधिवाद से मिलता-जुलता ही नियतिवाद है। भवितव्यता अथवा होनहार नियति कहलाती है। कई प्रमादी मनुष्य भवितव्य के सहारे निश्चिन्त रहने को कहते हैं। उनका कथन होता है-आखिर हमारे सोचने और करने से क्या हो जाता है ! जो होनहार है, वह होकर ही रहता है और अनहोनी कभी होती नहीं। पुरुषार्थवाद-एकान्त पुरुषार्थवादी स्वभाव, दैव आदि का निषेध करके केवल पुरुषार्थ से ही सर्व प्रकार की कार्यसिद्धि स्वीकार करते हैं। उनका कथन है-लक्ष्मी उद्योगी पुरुष को ही प्राप्त होती है। लक्ष्मी की प्राप्ति भाग्य से होती है. ऐसा कहने वाले परुष कायर हैं। अतएवं दैव को ठोकर मारकर अपनी शक्ति के अनस करो। प्रयत्न किये जाओ। प्रयत्न करने पर भी यदि सिद्धि न हो तो इसमें क्या दोष-बुराई है। कालवाद-कुछ वादी उक्त कारणों को नकारते हुए 'काल' को ही महत्त्व देते हैं। एकान्त कालवादियों का कथन है कि स्वभाव, नियित, पुरुषार्थ आदि कुछ नहीं, किन्तु काल से ही कार्य की सिद्धि होती है। सब अनुकूल कारण विद्यमान होने पर भी जब तक काल परिपक्व नहीं होता तब तक कार्य नहीं होता। अमुक काल में ही श्रु.१, द्वितीय अध्ययन : मृषावाद आश्रय (99) Sh.1, Second Chapter : Falsehood Aasrava i)))55555555555555555555 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002907
Book TitleAgam 10 Ang 10 Prashna Vyakaran Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Varunmuni, Sanjay Surana
PublisherPadma Prakashan
Publication Year2008
Total Pages576
LanguageHindi, English
ClassificationBook_Devnagari, Book_English, Agam, Canon, Conduct, & agam_prashnavyakaran
File Size19 MB
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