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अनुमान और आगम प्रमाण से भी आत्मा का अस्तितव सिद्ध होता है। एक ही माता-पिता के एक समान वातावरण में पलने वाले दो पत्रों में अनेक प्रकार की विषमताएँ दष्टिगोचर होती हैं. वह किसी अदष्ट कारण से ही होती है। वह अदृष्ट कारण पूर्वजन्मकृत शुभाशुभ कर्म ही हो सकता है और पूर्वजन्मकृत शुभाशुभ कर्म का फल आत्मा का पूर्व जन्म में अस्तित्व माने बिना नहीं सिद्ध हो सकता।
आत्मा की सिद्धि हो जाने पर परलोक-पुनर्जन्म, पाप-पुण्य, पाप-पुण्य का फल, विविध योनियों में जन्म लेना आदि भी सिद्ध हो जाता है।
पूर्वजन्म की स्मृति की घटनाएँ आज भी अनेकानेक घटित होती रहती हैं। ये घटनाएँ आत्मा के स्वतंत्र अस्तित्व को अभ्रान्त रूप से सिद्ध करती हैं।
पंचस्कन्धवाद-बौद्ध दर्शन में पाँच स्कन्ध माने गये हैं(१) रूप-पृथ्वी, जल आदि तथा इनके रूप, रस आदि। (२) वेदना-सुख, दुःख आदि का अनुभव। (३) विज्ञान-विशिष्ट ज्ञान अर्थात् रूप, रस, घट, पट आदि का ज्ञान। (४) संज्ञा-प्रतीत होने वाले पदार्थों का अभिधान-नाम। (५) संस्कार-पुण्य-पाप आदि धर्मसमुदाय।
बौद्ध दर्शन के अनुसार समस्त जगत् इन पाँच स्कन्धों का ही प्रपंच है। इनके अतिरिक्त आत्मा का पृथक् रूप से कोई अस्तित्व नहीं है। यह पाँचों स्कन्ध क्षणिक हैं।
बौद्धों में चार परम्पराएँ हैं-(१) वैभाषिक, (२) सौत्रान्तिक, (३) योगाचार और, (४) माध्यमिक। वैभाषिक सभी पदार्थों का अस्तित्व स्वीकार करते हैं, किन्तु सभी को क्षणिक मानते हैं। क्षण-क्षण में आत्मा का विनाश होता रहता है, परन्तु उसकी सन्तति-सन्तानपरम्परा निरन्तर चालू रहती है। उस सन्तानपरम्परा का सर्वथा उच्छेद हो जाना-बन्द हो जाना ही मोक्ष है। सौत्रान्तिक सम्प्रदाय के अनुसार जगत् के पदार्थों का प्रत्यक्ष ज्ञान नहीं होता। उन्हें अनुमान द्वारा ही जाना जाता है। योगाचार पदार्थों को असत् मानकर सिर्फ ज्ञान की ही सत्ता स्वीकार करते हैं और वह ज्ञान क्षणिक है। माध्यमिक सम्प्रदाय ज्ञान की भी सत्ता नहीं मानता। वह शून्यवादी है। वह मानता है न ज्ञान है और न ज्ञेय है। शून्यवाद के अनुसार वस्तु सत् नहीं, असत् भी नहीं, सत्-असत् भी नहीं और सत्-असत् नहीं ऐसा भी नहीं। तत्त्व इन चारों कोटियों से विनिर्मुक्त है।
वायु-जीववाद-कुछ लोग वायु को-प्राणवायु को ही जीव स्वीकार करते हैं। उनका कथन है कि जब तक श्वासोच्छ्वास चालू रहता है तब तक जीवन है और श्वासोच्छ्वास का अन्त हो जाना ही जीवन का अन्त हो जाना है। उसके पश्चात् परलोक में जाने वाला कोई जीव-आत्मा शेष नहीं रहता।
किन्तु विचारणीय है कि वायु जड़ है और जीव चेतन है। वायु में स्पर्श आदि जड़ के धर्म स्पष्ट प्रतीत होते हैं, जबकि जीव स्पर्श आदि से रहित है। ऐसी स्थिति में वायु को ही जीव कैसे माना जा सकता है ?
आत्मा की सत्ता या नित्य सत्ता न मानने के फलस्वरूप इस प्रकार की आत्मघाती व समानघाती धारणाएँ पनपती हैं कि परभव नहीं है। शरीर का विनाश होने पर सर्वनाश हो जाता है। अतएव दान, व्रत, पौषध, तप,
श्रु.१, द्वितीय अध्ययन : मृषावाद आश्रव
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Sh.1, Second Chapter: Falsehood Aasrava
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