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________________ फ्र Y 卐 卐 टीकाकार ने शून्यवाद का खण्डन करते हुए कहा है कि यदि समग्र विश्व शून्य रूप है तो शून्यवादी स्वयं ५ फ्र भी शून्य है या नहीं ? शून्यवादी यदि शून्य है तो इसका स्पष्ट अर्थ यह हुआ कि शून्यवादी कोई है ही नहीं। इसी प्रकार उसके द्वारा प्ररूपित शून्यवाद यदि सत् है तो शून्यवाद समाप्त हो गया और शून्यवाद असत् है तो भी उसकी समाप्ति ही समझनी चाहिए। इस प्रकार शून्यवाद युक्ति से विपरीत तो है ही, प्रत्यक्ष अनुभव से भी विपरीत है। फ्र फ 5 नास्तिकवाद - शून्यवाद के पश्चात् अनात्मवादी नास्तिकों के मत का उल्लेख किया गया है। अनात्मवादियों फ की मान्यता है कि जीव अर्थात् आत्मा की स्वतन्त्र कोई सत्ता नहीं है। जो 'कुछ भी है वह पाँच भूत ही हैं। पृथ्वी, जल, तेजस् (अग्नि), वायु और आकाश, ये पाँच भूत हैं। इनके संयोग से शरीर का निर्माण होता है। इन्हीं से 4 चैतन्य की उत्पत्ति हो जाती है। चैतन्य शरीराकार परिणत भूतों से उत्पन्न होकर उन्हीं के साथ नष्ट हो जाता है। जैसे जल का बुलबुला जल से उत्पन्न होकर जल ही विलीन हो जाता है, उसका पृथक् अस्तित्व नहीं है, उसी 5 प्रकार चैतन्य का भी पंच भूतों से अलग अस्तित्व नहीं है। जब आत्मा की ही पृथक् सत्ता नहीं है तो परलोक के होने की बात ही निराधार है। अतएव न जीव मरकर फिर जन्म लेता है, न पुण्य और पाप का अस्तित्व है। सुकृत और दुष्कृत का कोई फल किसी को नहीं भोगना 5 पड़ता। नास्तिकवादियों की उक्त मान्यता को असत्य ठहराते हुए टीकाकार कहते हैं नास्तिकों की यह मान्यता प्रत्यक्ष अनुभव से भी अप्रमाणिक है। अनुमान और आगम प्रमाणों से भी वह असत्य सिद्ध होती है। यह निर्विवाद है कि कारण में जो गुण विद्यमान होते हैं, वही गुण कार्य में आते हैं। ऐसा कदापि नहीं होता 5 कि जो गुण कारण में नहीं हैं, वे अकस्मात् कार्य में उत्पन्न हो जायें । मिष्ठान्न तैयार करने के लिए गुड़, शक्कर आदि मिष्ट पदार्थों का प्रयोग किया जाता हैं। गुड़-शक्कर के बदले राख या धूल से मिठाई नहीं बनती। इस सिद्धान्त के आधार पर पाँच भूतों से चैतन्य की उत्पत्ति की मान्यता पर विचार किया जाये तो यह मान्यता कपोल-कल्पित ही सिद्ध होती है। नास्तिकों से पूछना चाहिए कि जिन पाँच भूतों से चैतन्य की उत्पत्ति कही जाती है, उनमें पहले से चैतन्यशक्ति विद्यमान है अथवा नहीं? यदि विद्यमान नहीं है तो उनसे चैतन्यशक्ति 5 उत्पन्न नहीं हो सकती। क्योंकि जो गुण, वस्तु में नहीं होता वह उसके फल में भी नहीं हो सकता। यदि बीज में फ अंकुरित होने की क्षमता नहीं है, तो उससे कोई भी फसल उत्पन्न नहीं हो सकती। फ्र अनात्मवादी कहते हैं- आत्मा का स्वतन्त्र अस्तित्व सिद्ध करने के लिए कोई प्रमाण नहीं है। इन्द्रियों से 卐 5 उसका परिज्ञान नहीं होता । अतएव मन से भी वह नहीं जाना जा सकता, क्योंकि इन्द्रियों द्वारा जाने हुए पदार्थ 5 को ही मन जान सकता है। अतीन्द्रिय प्रत्यक्ष जैसी कोई वस्तु है ही नहीं। इस प्रकार किसी भी रूप में आत्मा का 5 प्रत्यक्ष न होने से वह अनुमान के द्वारा भी नहीं जाना जा सकता । आगम परस्पर विरोधी प्ररूपणा करते हैं, आत्मा के अस्तित्व को कैसे प्रमाणित कर सकते हैं ? टीकाकार का प्रत्युत्तर है - अनात्मवादियों का यह कथन तर्क और अनुभव से असंगत है। सर्वप्रथम तो 'मैं हूँ, मैं सुखी हूँ, मैं दुःखी हूँ' इस प्रकार जो अनुभूति होती है, उसी से आत्मा की सिद्धि हो जाती है । घट, पट आदि चेतनाहीन पदार्थों को ऐसी प्रतीति नहीं होती। अतएव 'मैं' की अनुभूति से उसका कोई विषय सिद्ध होता फ है और जो 'मैं' शब्द का विषय (वाच्य) है, वही आत्मा कहलाता है। श्री प्रश्नव्याकरण सूत्र (84) Jain Education International בת Shri Prashna Vyakaran Sutra OS5 5 5 5 55 5 5 5 5 5 5 5 55 5 55 5555 55555555952 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002907
Book TitleAgam 10 Ang 10 Prashna Vyakaran Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Varunmuni, Sanjay Surana
PublisherPadma Prakashan
Publication Year2008
Total Pages576
LanguageHindi, English
ClassificationBook_Devnagari, Book_English, Agam, Canon, Conduct, & agam_prashnavyakaran
File Size19 MB
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