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birth and also comes to an end. The present life is the only life-span. With the end of this life-span there is the total extinction of that Jiva. In other words nothing like soul exists thereafter. The people who are Mrishavadi (the pronouncers of falsehood) speak in this manner. They say that giving in charity, adopting vows, observing paushadh fast, following ascetic discipline, observing celibacy and the like which are normally considered as practices of public welfare, do not lead to any result. Even violence, killing and speaking false does not produce any bad result. There are no states of hellish beings, human beings and animal life; there is no abode of celestial beings. There is nothing like liberation or salvation. There is no mother or father. There is nothing like human effort. In other words human effort is not the cause of any success. There is no reality in taking vow of discarding any thing or activity (pratyakhyan). There is nothing that can be termed as past, present or future. There is nothing like death. There never occur omniscient (Arihant ), Chakravarti, Baladev or Vasudev. No one is a rishi or a muni. There is no fruit big or small of any religious activity or of irreligious activity; so keeping these facts in mind, one should behave as one's sense organs desire. Never discard any opportunity of enjoyment. No activity is good or bad. Thus these people are ignorant about the real nature of the universe. They have a wrong belief. They follow untrue path (nastik) and they make false pronouncement.
विवेचन : प्रस्तुत पाठ में नास्तिकवादियों की मान्यताओं का दिग्दर्शन कराया गया है। इससे पूर्व के सूत्र में विविध प्रकार के लौकिक जनों का, जो व्यक्तिगत स्वार्थ के लिए, आजीविका, व्यापार-धंधा, परिवार - पालन आदि के लिए असत्य भाषण करते हैं, उनका कथन किया गया था।
एक व्यक्ति किसी कारण स्वार्थ आदि से जब असत्य भाषण करता है तब वह प्रधानतः अपना ही अहित करता है । किन्तु जब कोई दार्शनिक असत्य पक्ष की स्थापना करता है, असत्य को सिद्धान्त रूप में स्थापित करता है। तब वह असत्य विराट रूप धारण कर लेता है। वह मृषावाद दीर्घकाल पर्यन्त प्रचलित रहता है और उससे अगणित लोग भ्रान्त होकर दुराचरण की ओर प्रवृत्त होते हैं। इस प्रकार की प्ररूपणा करने वाला न जाने कितने लोगों को, कितने काल तक मिथ्या धारणाओं का शिकार बनाता रहता है। ऐसी धारणाएँ व्यक्ति के अपने जीवन को तो कलुषित करती ही हैं और साथ ही सामाजिक जीवन को भी निरंकुश, स्वेच्छाचारी बना देती हैं। अतएव वैयक्तिक असत्य की अपेक्षा दार्शनिक असत्य हजारों-लाखों गुणा अनर्थकारी है।
शून्यवादी - बौद्ध दर्शन की अनेक शाखाओं में एक 'शून्यवादी' शाखा या सम्प्रदाय है । इसके मतानुसार किसी भी वस्तु की सत्ता नहीं है। जैसे स्वप्न में अनेकों दृश्य दृष्टिगोचर होते हैं किन्तु जागृत होने पर या वास्तव में उनकी कहीं भी सत्ता नहीं होती। इसी प्रकार प्राणी भ्रम के वशीभूत होकर नाना पदार्थों का अस्तित्व समझता है, किन्तु भ्रमभंग होने पर वह सभी कुछ शून्य मानता है।
श्रु. १, द्वितीय अध्ययन : मृषावाद आश्रव
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Sh. 1, Second Chapter: Falsehood Aasrava
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