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चलता ही रहता है। तिर्यंचगति के दुःख जगत् में प्रत्यक्ष दिखाई देते हैं। नरक से किसी भी भाँति निकले 5 और तिर्यंचयोनि में जन्मे वे पापी जीव बेचारे दीर्घकाल तक इन दुःखों को प्राप्त करते हैं ।
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33. As a result of sinful deeds of earlier life, the hellish beings फ्र repenting bitterly and discarding their deeds of past lives, facing severe troubles and the effect of adverse Karma, which could be removed only after going through their consequences, most of them take birth in animal state of existence after completing their life in hell.
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But their life as creatures in animal state of existence is extremely full of troubles. It has to be completed with great odds. They go on passing through pangs of birth, old age and death. The living beings in water, land and sky go on attacking and counter-attacking each other. The troubles of animal life are quite evident in the world. The poor 卐 creatures some how completed the span of life in hell and now for a long time they bear the pangs of animal life.
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विवेचन : नारक जीव नरकायु पूर्ण होने पर ही नरक से निकलते हैं। उनका मरण 'उद्वर्त्तन' कहलाता है। पूर्व में बतलाया जा चुका है कि नारकों का आयुष्य निरुपक्रम होता है। विष, शस्त्र आदि के प्रयोग से उनकी अकालमृत्यु नहीं होती। जब नरक का आयुष्य पूर्ण रूप से भोगकर क्षीण कर दिया जाता है, तभी नारक फ्र नरकयोनि से छुटकारा पाता है।
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मानव किसी कषाय आदि के आवेश से जब आविष्ट होता है तब उसमें एक प्रकार का उन्माद जागृत होता है । वह आविष्ट अवस्था में अकरणीय कार्य कर बैठता है। आन्तरिक दुर्भाव के कारण प्रगाढ़ - चिकने-निकाचित 5 कर्मों का बन्ध होता है। बँधे हुए कर्म जब अपना फल प्रदान करने के उन्मुख होते हैं - अबाधाकाल पूर्ण होने पर 5 फल देना प्रारम्भ करते हैं तो भयंकर से भयंकर यातनाएँ उसे भोगनी पड़ती हैं।
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प्रत्येक नारक जीव को भव-प्रत्ययिक अर्थात् नारक भव के निमित्त से उत्पन्न होने वाला अवधिज्ञान होता है । उस अवधिज्ञान से नारक अपने पूर्वभव में किए घोर पापों के लिए पश्चात्ताप करते हैं । किन्तु उस पश्चात्ताप 5 से भी उनका छुटकारा नहीं होता । हाँ, नारकों में यदि कोई सम्यग्दृष्टि जीव हो तो वह कर्मफल की अनिवार्यता समझकर नारकीय यातनाएँ समभाव से सहन करता है और अपने समभाव के कारण दुःखानुभूति को किंचित् हल्का बना सकता है। मगर मिथ्यादृष्टि तो दुःखों की आग के साथ-साथ पश्चात्ताप की आग में जलते हुये अपने पूर्व आचरित पापकर्मों की निंदा करने लगते हैं कि मैंने ऐसा क्यों किया ?
नरक से निकले हुए और तिर्यंचगति में जन्मे हुए घोर पापियों को सुख-सुविधापूर्ण तिर्यंचगति की प्राप्ति नहीं होती । नारक जीव नरक से निकलकर दुःखमय तिर्यंचयोनि में जन्म लेते हैं। वहाँ उन्हें विविध प्रकार के दुःख भोगने पड़ते हैं।
नारक जीव पुनः तदनन्तर भव में नरक में उत्पन्न नहीं होता। वह तिर्यंच अथवा मनुष्यगति में ही जन्म लेता है । तिर्यंचयोनि, नरकयोनि के समान एकान्त दुःखमय नहीं है। उसमें दुःखों की बहुलता के साथ किंचित् सुख भी होता है । कोई-कोई तिर्यंच तो पर्याप्त सुख की मात्रा का अनुभव करते हैं, जैसे राजा-महाराजाओं के हस्ती, फ अश्व अथवा समृद्ध जनों द्वारा पाले हुए कुत्ता आदि ।
श्री प्रश्नव्याकरण सूत्र
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Shri Prashna Vyakaran Sutra
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