________________
१०४. [ १ ] जिब्भिंदियलद्धियाणं चत्तारि णाणाई, तिण्णि य अण्णाणाणि भयणाए । १०४. [ १ ] जिह्वेन्द्रियलब्धि वाले जीवों में चार ज्ञान और तीन अज्ञान भजना से होते हैं।
104. [1] Living beings with Jihvendriya-labdhi (attainment of ability of the sense organ of taste) have different alternative combinations of four jnanas and three ajnanas.
[प्र. २ ] तस्स अलद्धिया णं पुच्छा ।
[उ. ] गोयमा ! नाणी वि, अण्णाणी वि । जे नाणी ते नियमा एगनाणी- केवलनाणी । जे अण्णाणी ते नियमा दुअन्नाणी, तं जहा - मइ अण्णाणी य, सुयअन्नाणी य ।
[प्र. २ ] भगवन् ! जिह्वेन्द्रियलब्धिरहित जीव ज्ञानी होते हैं या अज्ञानी ?
फ़फ़
[ उ. ] गौतम ! वे ज्ञानी भी होते हैं, अज्ञानी भी होते हैं । जो ज्ञानी होते हैं, वे नियमतः एक मात्र केवलज्ञान वाले होते हैं और जो अज्ञानी होते हैं, वे नियमतः दो अज्ञान वाले होते हैं। यथामति - अज्ञानी और श्रुत - अज्ञानी ।
[Q. 2] Bhante ! Are jivas without Jihvendriya-labdhi (attainment of ability of the sense organ of taste) jnani or ajnani?
சு
फ्र
[Ans.] Gautam ! They are jnani (endowed with right knowledge) as f well as ajnani (ignorant or with wrong knowledge). Those who are jnani are with only one jnana, Keval-jnana (omniscience), as a rule. Those who are ajnani have two ajnanas as a rule-Mati-ajnana and Shrut-ajnana.
१०५. फासिंदियलद्धियाणं अलद्धियाणं जहा इंदियलद्धिया य अलद्धिया य ।
१०५. स्पर्शेन्द्रियलब्धियुक्त जीवों का कथन इन्द्रियलब्धि वाले जीवों के समान करना चाहिए । ( अर्थात् उनमें चार ज्ञान और तीन अज्ञान भजना से पाये जाते हैं ।)
105. Living beings with Sparshanendriya-labdhi (attainment of ability of the sense organ of touch) follow the pattern of living beings with Indriya-labdhi (ability of sense organs). Which means they have different alternative combinations of four jnanas (kinds of right knowledge) and three ajnanas (kinds of wrong knowledge).
विवेचन : ( ९ ) लब्धि द्वार- लब्धि की परिभाषा - ज्ञानादि गुणों के प्रतिरोधक उन ज्ञानावरणीय आदि कर्मों के क्षय या क्षयोपशम से आत्मा में ज्ञानादि गुणों की उपलब्धि (लाभ या प्रकट) होना लब्धि है।
लब्धि के मुख्य दस भेद हैं- (१) ज्ञानलब्धि - ज्ञानावरणीय कर्म के क्षय या क्षयोपशम से आत्मा में मतिज्ञानादि गुणों का लाभ होना । (२) दर्शनलब्धि - सम्यक्, मिथ्या या मिश्र - श्रद्धानरूप आत्मा का परिणाम प्राप्त होना । (३) चारित्रलब्धि - चारित्रमोहनीय कर्म के क्षयोपशम या क्षयादि से होने वाला विरतिरूप आत्म-परिणाम । ( ४ ) चारित्राचारित्रलब्धि - अप्रत्याख्यानी चारित्रमोहनीय कर्म के क्षयोपशम से होने वाला आत्मा का देशविरतिरूप - परिणाम चारित्राचारित्रलब्धि है । (५) दानलब्धि - दानान्तराय के क्षय या क्षयोपशम से होने वाली
अष्टम शतक : द्वितीय उद्देशक
Jain Education International
(53)
Eighth Shatak: Second Lesson
For Private & Personal Use Only
फ्र
फ्र
卐
卐
卐
अ
www.jainelibrary.org