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९१. श्रमण भगवान महावीर भी एक बार अनुक्रम से विचरण करते हुए, यावत् सुखपूर्वक विहार 1 करते हुए, जहाँ चम्पानगरी में पूर्णभद्र नामक चैत्य था, वहाँ पधारे; तथा अवग्रह आवास स्थान तथा ॐ पट्टे-चौकी आदि की याचना ग्रहण करके संयम और तप से अपनी आत्मा को भावित करते हुए ॐ विचरण कर रहे थे।
91. In course of his comfortable wanderings from one village to another, Shraman Bhagavan Mahavir also arrived at Purnabhadra Chaitya in Champa City. Seeking a suitable place and permission he
stayed there enkindling his soul with ascetic-discipline and austerities. म जमालि अनगार के शरीर में रोगातंक ASCETIC JAMALI'S AILMENT
९२. तए णं तस्स जमालिस्स अणगारस्स तेहिं अरसेहि य विरसेहि य अंतेहि य पंतेहि य लूहेहि यश म तुच्छेहि य कालाइक्कतेहि य पमाणाइक्कतेहि य सीतएहि य पाण-भोयणेहिं अन्नया कयाइ सरीरगंसि ॐ विउले रोगातंके पाउन्भूए-उज्जले विउले पगाढे कक्कसे कडुए चंडे दुक्खे दुग्गे तिब्वे दुरहियासे,
पित्तज्जरपरिगतसरीरे दाहवक्कंतिए यावि विहरइ। ॐ ९२. उस समय जमालि अनगार को अरस, विरस, अन्त, प्रान्त, रूक्ष और तुच्छ तथा ज
कालातिक्रान्त और प्रमाणातिक्रान्त एवं ठण्डे पान (पेय पदार्थों) और भोजनों (भोज्य पदार्थों) (के
सेवन) से एक बार शरीर में विपुल रोगांतक (व्याधि) उत्पन्न हो गया। वह रोग उज्ज्वल, विपुल, प्रगाढ़, + कर्कश, कटुक, चण्ड, दुःख रूप, दुर्ग (कष्टसाध्य), तीव्र और दुःसह था। उसका शरीर पित्तज्वर से व्याप्त 卐 होने के कारण दाह से युक्त हो रहा था।
92. Now because of consuming food that was tasteless (aras), foul (viras), leftover (ant), not enough (praant), dry (ruksh), stale (kaalatikrant), excessive or meager (pramaanaatikrant) or due to intake of cold drinks or food, once Jamali suffered from a grave sickness. This _ailment was excruciating (ujjval), intense (vipul), severe (pragaadh), harsh (karkash), agonizing (chand), bitter (katuk), miserable (duhkha roop), intolerable (durg), sharp (tivra) and unbearable (duhsaha). He suffered from bile fever and ran a very high temperature.
विवेचन : विशेष शब्दों का भावार्थ-अरसेहि-बिना रस वाले बेस्वाद। विरसेहि-पुराने होने से खराब रस के वाले। अन्तेहिं-अरस होने से सब धान्यों से तुच्छ धान्य वाला। पंतेहि-बचा-खुचा बासी आहार। लूहेहि-रूक्ष। तुच्छेहि-थोड़े-से, या हल्की किस्म के। कालाइक्कंतेहि : दो अर्थ-जिसका काल व्यतीत हो चुका हो ऐसा आहार, अथवा भूख-प्यास का समय बीत जाने पर किया गया आहार। पमाणाइक्कंतेहि-भूख-प्यास की मात्रा के अनुपात में जो आहार न हो। सीतएहि-ठंडा आहार। विउले-विपुल-समस्त शरीर में व्याप्त। उज्जले-उत्कट
ज्वलन-(दाह) कारक। पगाढे-तीव्र या प्रबल। कक्कसे-कठोर या अनिष्टकारी। चंडे-रौद्र-भयंकर। दक्खे के रूप। दुग्गे-कष्टसाध्य। दुरहियासे-दुस्सह। पित्तज्जरपरिगयसरीरे-पित्तज्वर से व्याप्त शरीर वाला। ॥
नवम शतक : तेतीसवाँ उद्देशक
(487)
Ninth Shatak : Thirty Third Lesson
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