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५. समस्त जीवों के औदारिकशरीर-प्रयोगबन्ध वीर्य, योग, सद्रव्य एवं प्रमाद के कारण कर्म, योग, भव + और आयुष्य की अपेक्षा औदारिकशरीरप्रयोग-नामकर्म के उदय से होता है।
६. समस्त जीवों के औदारिकशरीर-प्रयोगबन्ध देशबन्ध भी है, सर्वबन्ध भी। ७. समस्त जीवों के औदारिकशरीर-बन्ध की कालतः स्थिति की सीमा। ८. समस्त जीवों के सर्व-देशबन्ध की अपेक्षा कालतः औदारिकशरीर-बन्ध के अन्तर-काल की सीमा।
९. समस्त जीवों द्वारा अपने एकेन्द्रियादि पूर्वरूप को छोड़कर अन्य रूपों में उत्पन्न हो या रहकर, पुनः उसी अवस्था (रूप) में आने पर औदारिकशरीर-प्रयोगबन्धान्तर-काल की सीमा।
१०. औदारिकशरीर के देशबन्धक, सर्वबन्धक और अबन्धक जीवों का अल्प-बहुत्व।
औदारिकशरीर-प्रयोगबन्ध के आठ कारण-जिस प्रकार प्रासादनिर्माण में द्रव्य, वीर्य, संयोग, योग-(मनॐ वचन-काया का व्यापार), शुभकर्म (का उदय), आयुष्य, भव (तिर्यंच-मनुष्यभव) और काल (तृतीय-चतुर्थ
पंचम आरा) इन कारणों की अपेक्षा होती है, उसी प्रकार औदारिकशरीर-बन्ध में भी निम्नोक्त ८ कारण अपेक्षित हैं-(१) सवीर्यता-वीर्यान्तरायकर्म के क्षयोपशम से उत्पन्न शक्ति, (२) सयोगता-योगयुक्तता,
(३) सद्रव्यता-जीव के तथारूप औदारिकशरीर योग्य तथाविध पुदगलों-(द्रव्यों) की विद्यमानता, म (४) प्रमाद-शरीरोत्पत्तियोग्य विषय-कषायादि प्रमाद, (५) कर्म-तिर्यंच-मनुष्यादि जाति-नामकर्म,
(६) योग-काययोगादि, (७) भव-तिर्यंच एवं मनुष्य का अनुभूयमान भव, और (८) आयुष्य-तिर्यंच और
मनुष्य का आयुष्य। औदारिकशरीर-प्रयोग-नामकर्म के उदय से होता है; किन्तु मूल पाठ में जो ८ कारण - बताये हैं, वे इस मुख्य कारण-नामकर्म के सहकारी कारण हैं. जो औदारिकशरीर-प्रयोगबन्ध में आवश्यक हैं।
___औदारिकशरीर-प्रयोगबन्ध के दो रूप : सर्वबन्ध, देशबन्ध-जिस प्रकार घृतादि से भरी हुई एवं अग्नि से तपी 卐 हुई कड़ाही में जब मालपूआ डाला जाता है, तो प्रथम समय में वह घृतादि को केवल ग्रहण करता (खींचता) है,
तत्पश्चात् शेष समयों में वह घृतादि को ग्रहण भी करता है और छोड़ता भी है, उसी प्रकार यह जीव जब
पूर्वशरीर को छोड़कर अन्य शरीर को धारण करता है, तब प्रथम समय में उत्पत्तिस्थान में रहे हुए उस शरीर 卐 के योग्य पुद्गलों को केवल ग्रहण करता है। इस प्रकार का यह बन्ध-'सर्वबन्ध' है। तत्पश्चात् द्वितीय आदि 卐 समयों में शरीरयोग्य पदगलों को ग्रहण भी करता है और छोडता भी है; अतः यह ब
यहाँ कहा गया है कि औदारिकशरीर-प्रयोगबन्ध सर्वबन्ध भी होता है, देशबन्ध भी। जो सर्वबन्ध केवल एक समय का होता है। मालपूए के पूर्वोक्त दृष्टान्तानुसार जब वायुकायिक या मनुष्यादि जीव वैक्रियशरीर करके उसे छोड़ देता है, तब छोड़ने के बाद औदारिकशरीर का एक समय तक सर्वबन्ध करता है, तत्पश्चात् दूसरे समय में वह देशबन्ध करता है। दूसरे समय में यदि उसका मरण हो जाये तो इस अपेक्षा से देशबन्ध जघन्य एक समय का होता है। औदारिकशरीरधारी जीवों की उत्कृष्ट आयुष्यस्थिति तीन पल्योपम की है। उसमें से जीव प्रथम समय में सर्वबन्धक और उसके बाद एक समय कम तीन पल्योपम तक देशबन्धक रहता है। इस
दृष्टि से समस्त जीवों की अपनी-अपनी उत्कृष्ट आयुष्यस्थिति के अनुसार एक समय तक वे सर्वबन्धक और ॐ फिर देशबन्धक रहते हैं। जैसे-एकेन्द्रिय जीवों की उत्कृष्ट आयुस्थिति २२ हजार वर्ष की है। उसमें से १ समय ॐ 卐 तक वे सर्वबन्धक और फिर १ समय कम २२ हजार वर्ष तक वे देशबन्धक रहते हैं। र उत्कृष्ट देशबन्ध-जिसकी जितनी उत्कृष्ट आयुष्यस्थिति होती है, उसका देशबन्ध उसमें एक समय कम होता 卐 है। जैसे-अप्काय की ७,००० वर्ष, तेजस्काय की ३ अहोरात्र, वनस्पतिकाय की १०,००० वर्ष, द्वीन्द्रिय की म १२ वर्ष, त्रीन्द्रिय की ४९ दिन, चतुरिन्द्रिय की ६ मास की उत्कृष्ट आयुस्थिति होती है।
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भगवती सूत्र (३)
(222)
Bhagavati Sutra (3)
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